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________________ चतुर्थ अध्याय ॥ १११ प्रायः इतने रोगों की शंका होती है-हृदय का दर्द, फेफसे का रोग, मगज़ का रोग, सन्निपातज्वर, सुवा रोग और शरीर का अत्यन्त सड़ना, इस नाड़ी से उक्त रोगों के सिवाय अन्य भी कई प्रकार के अत्यन्त भयकर स्थितिवाले रोगों की सम्भावना रहती है। ७-अन्तरिया नाड़ी-जिस नाड़ी के दो तीन ठनके होकर वीच में एकाध ठनके जितनी नागा पडे अर्थात् ठवका ही न लगे, फिर एकदम दो तीन ठवके होकर पूर्ववत् (पहिले की तरह ) नाडी बद पड़ जावे और फिर वारंवार यही व्यवस्था होती रहे वह अन्तरिया नाड़ी कहलाती है, जब हृदय की बीमारी में खून ठीक रीति से नहीं फिरता है तब बडी धोरी नस चौडी हो जाती है और मगज का कोई भाग विगड जाता है तब ऐसी नाड़ी चलती है । डाक्टर लोग प्रायः नाड़ी की परीक्षा में तीन बातों को ध्यान में रखते है वे ये हैं१-नाड़ी की चाल जल्दी है या धीमी है। २- नाडी का कद बड़ा है या छोटा है । ३-नाड़ी सख्त है या नरम है। ___ खूनवाले जोरावर आदमी के बुखार में, मगज के शोथ में कलेजे के रोग में और गॅठियावायु आदि रोगों में जल्दी, बहुत बड़ी और सख्त नाड़ी देखने में आती है, ऐसी नाड़ी यदि बहुत देरतक चलती रहे तो जान को जोखम आ जाती है, जब बुखार के रोग में ऐसी नाड़ी बहुत दिनोंतक चलती है तब रोगी के बचने की आशा थोड़ी रहती है, हा यदि नाडी की चाल धीरे २ कम पड़ती जावे तो रोगी के सुधरने की आशा रहती है, प्रायः यह देखा गया है कि-फरत खोलने से, जोंक लगाने से, अथवा अपने आप ही खून का रास्ता होकर जब बढ़ा हुआ खून निकल जाता है तो नाड़ी सुधर जाती है, निर्वल आदमी को जब बुखार आता है अथवा शरीरपर किसी जगह सूजन आ जाती है तब उतावली छोटी और नरम नाड़ी चलती है, जब खून कम होता है, आतों में शोथ होता है तथा पेट के पड़दे पर शोथ होता है तब जल्दी छोटी और सख्त नाड़ी चलती है, यह नाड़ी यद्यपि छोटी तथा महीन होती है परन्तु बहुत ही सख्त होती है, यहातक कि अंगुलि को तार के समान महीन और करड़ी लगती है, ऐसी नाड़ी भी खून का जोर बतलाती है। नाडी के विषय में लोगों का विचार-केवल नाड़ी के देखने से सब रोगों की सम्पूर्ण परीक्षा हो सकती है ऐसा जो लोगों के मनों में हद्द से ज्यादा विश्वास जम गया है उस से वे लोग प्रायः ठगाये जाते हैं, क्योंकि नाड़ी के विषय में झूठा फाका मारनेवाले धूर्त वैद्य और हकीम अज्ञानी लोगों को अपने बचनजाल में फंसाकर उन्हें मन माना ठगते हैं, इन धूत्ताने यहातक लीला फैलाई है कि जिस से नाड़ीपरीक्षा के विषय
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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