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________________ २९८ जैनसम्प्रदायशिक्षा || चाहिये, क्योंकि इस समय बोलने से दुर्गन्वि मुख में प्रविष्ट होकर रोगों का कारण होती है तथा दूसरी तरफ ध्यान होने से मलादि की शुद्धि भी ठीक रीतिसे नहीं होती है, मलमूत्र का त्याग बहुत मल करके नहीं करना चाहिये । घोकर मल का त्याग करने के पम्बात् गुदा और लिंग आदि मंगों को जल से खूब खाफ करना चाहिये । जो मनुष्य सूर्योदय के पीछे ( दिन चढ़ने पर ) पाखाने जाते हैं उन की बुद्धि मलीन और मस्तक न्यून लबाला हो जाता है तथा शरीर में भी नाना प्रकार के रोग हो खाते हैं । बहुत से मूर्ख मनुष्य आलस्य भावि में फँस कर मल मूत्र आदि के वेग को रोक लेते हैं, यह बड़ी हानिकारक बात है, क्योंकि इस से मूत्रकृच्छ्र विरोरोग तथा पेडू पीठ और पेट मावि में दर्द होने लगता है, केवल इतना ही नहीं किन्तु मल के रोकने से अनेक उदावर्ष आदि रोगों की उत्पत्ति होती है, इस लिये मक और मूत्र के बेग को भूल कर भी नहीं रोकना चाहिये, इसी प्रकार छींक प्रकार हिचकी और वेग को भी नहीं रोकना चाहिये, क्योंकि इन के वेग को रोकने से उत्पत्ति होती है । मपान वायु यदि के भी मनेक रोगों की मलमूत्र के त्याग करने के पीछे मिट्टी और जल से हाथ और पांगों को भी खूब स्वच्छता के साथ धोकर शुद्ध कर लेना चाहिये ॥ मुखशुद्धि ॥ यदि मत्याख्यान हो तो उस की समाप्ति होने पर मुख की शुद्धि के लिये नीम, खैर, बबूल, आक, पिभागांस, मामा, सिरोहा, करज, मद, महुमा और मौलसिरी भावि दूप माळे वृक्षों की छाँवोन करे, दाँतोन एक बाकि लंबी और अंगुली के बराबर मोटी होनी चाहिये, उस की छाल में कीड़ा था कोई विकार नहीं होना चाहिये तथा वह गाँठ दार भी नहीं होनी चाहिये, दाँतोन करने के पीछे सेंधानमक, सौंठ और भुना हुआ जीरा, इन तीनोंको पीस तथा कपड़छान कर रक्खे हुए मजन से दाँतों को माँजना चाहिये, क्योंकि जो मनुष्य दासीन नहीं करते हैं उन के मुँह में दुर्गन्ध आने लगती है और यो प्रतिदिन १- सूर्य का जश्न हो जाने से पेट में गर्मी समाकर मन छ से जाता है उसके होने से मगज सुकी और मम पहुँचती है ये न्यून बजाता है ॥ १-भूल प्यास कामका बेग मूत्र का वेग अपानवायुका बेय जम्मा (मुई) सू, बमन बी (कायम) श्रास और निशा मे १३ मे घरीर में सामाजिक उत्पम वे इसमें इसके को रोनहीं चाहिये क्योकि इन गेमों के रोकने से उदार आणि अनेक रोम होते है, (देखो कन्थों में उद्या प्रकरण
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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