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________________ में उस दवा से मेट दुःख जग के प्राणियों का । और भ्रम सब मिटादं दिल से प्रयानियों का ।। रा करके ब्रह्मचारी विद्या करूं मैं हासिल । मालिम वनं मैं पूरा हरएक फन में कामिल ॥ होकर धर्म का माहिर हरइक अमल का पामिल । पक्खू चक्खाऊ सबको गुण ज्ञान के सरस फल ।। रक्षा करू मैं अपने वन वीर्य की निमा कर । सेवा करूं धर्म की मैं जिस्मो र्जा लगा कर ॥ अर्जन सा बल हो मुझ में और भीम सी हो ताकत । अकलङ्क सी हो हिम्मत निकलङ्क सी शजायत ।। भीपाल जैसी स्थिरता और राम जैसी इज्जत । विष्णु सा प्रम मुझ में लक्ष्मण सी हो महब्बत ॥ उस करण जैसी मुझ में हां दानवीरता हो । गज मुख माल जैसी हां ध्यान धीरता हो ॥ सादी गिज़ा हो मेरी सादा चदन हो मेरा । मैं हूं बतन का प्यारा प्यारा पतन हो मेरा ॥
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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