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________________ ((.) ममपन्-रे भारि । सर्व धम्म मात्मा पोध प्राप्त महौं रेंगे क्योंकि-यामनन्त है जैसे माकाश की भेपिएँ प्रमन्त र सीमार पीर मी अनन्तरे मिस पपार पन भेणियों का अन्त महीं मावा एसी मार लोगों का मन्त्र भी नाही? अपम्तीने ममबन् ! समन्व शुमा म क्या है। मगमन्-रे म्यन्ती ! मिस मन्व न हो असेही भनम्न पाते हैं प्रप उसका अन्वरेब पह ममन्त नही सा ना सकता । प्रमएको भयम्वी । धमादि ससार में मादि कान पनम्न भास्मा निवास करके प्रबन्ध तीन मे सन का भरत नहीं पाया भावा । प्रयन्त -हे भगवन् ! मीन पनवान् भने होत रेका नियन अछे है। भमनन् हे मपम्ता ! पन में भारया परवान् मध्ये रोता बहुन प नियम भ रावे है। मी- पगवन् ! या पन डिस पहार H मानो नाए । म प्रस्मा म पाम् अच्छे तौर पार : निर्व
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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