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________________ ५५२ बैनसम्प्रदायश्चिचा || निराश्च ( नाउम्मेद) हो गये हों उन को चाहिये कि इस भ का अवश्य सेवन करें, क्योंकि उपदेश की सब व्याधियों को यह भई अवश्य मिटाता है' । ७- उपर्दशविध्यसिनीगुटिका -- यह गुटिका भी उपदक्ष रोग पर बहुत ही फायदा करती है, इस किये इस का सेवन करना चाहिये || नाल उपदेश का वर्णन ॥ पहिले कह चुके हैं कि गर्मी का रोग बारसा में उत्पन्न होता है, इस लिये कुछ वर्षोंतक उपवंश का भारसा में उतरना सम्भव रहता है, परन्तु उस का ठीक निःश्वम नहीं हो सकता है तथापि पहिले उपवध होने के पीछे वर्ष वा छ महीने में गर्भ पर उसका मसर होना विशेष संभव होता है, इस के पीछे यद्यपि यो २ गर्मी पुरानी होती जाती है और उस का और कम पड़ता जाता है तथा दूसरे दर्ज में से सीसरे दर्जे में पहुँचती है त्यों २ कम हानि होने का सम्मय होता जाता है तथापि बहुत से ऐसे भी उदाहरण मिलते हैं कि कई वर्षों के व्यतीत हो जाने के पीछे भी ऊपर किले अनुसार गर्मी बारसा में उतरती है, पिठा के गर्मी होनेपर चाहे माता के गर्मी न भी हो तो भी उस के बचेको गर्मी होती है और बच्चे के द्वारा वह गर्मी माया के लग जाना भी सम्भव होता है तथा माता के गर्मी होने से बच्चे को भी उपदध हो जाता है । पद्मे का जन्म होने के पीछे यदि माता के उपदच होने तो दूध पिल्मने से भी बच्चे के उपदेश हो जाता है, उपदध से युक्त बच्चा यदि नीरोग भाग का वूम पीने हो उस भाग के भी उपक्ष के हो जाने का सम्मन होता है तथा स्तन का जो भाग बच्चे के मुख में आता है यदि उस के ऊपर फाट हो तो उसी मार्ग से इस रोग के चेप के फैलने का विशेष सम्भव होता है । - ना उपदेश तीन मकार से प्रकट होता है, जिसका विवरण इस प्रकार है१-कभी २ गर्भावस्था में प्रकट होता है जिस से बहुत सी स्त्रियों के गर्भ का पाठ ( पतन भयात् गिरना ) हो जाता है। २-कभी २ गर्भका पात न होकर सभा पूरे महीनों में गधे के उत्पन हो जाने पर जन्म के होते ही गधे के भग पर उपबंध के चिन्ह मासूम होते हैं । १- अर्क सहस्रों बार उपकरोमियों पर परीक्षा कर अनुभव राना मना है भा इगम अवश्य ही होता १-बार उपर काम करने वा कभी हमारी बनाई हुई हमारे भारत में उपस्थित जिन थे भाग ममध्ये मूल्य एक हिन्दी (जिनमे २३) पावन दिपिका पा जगा
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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