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________________ ४७२ जैनसम्प्रदाय शिक्षा | की सिंग (अंश) नहीं जाती है तब वह स्वर भातुओं में छिप कर ठहर जाता है त भहित भाहार भौर बिहार से दोष कोप को मात होकर पुन हैं उसे विषमज्वर कहते हैं, इस के सिवाय इस ज्वर की उत्पत्ति दूसरे कारणों से भी प्रारंम वचो में हो जाती है । ज्गर को मकट कर देते खराब दवा नागि लक्षण - विषमज्वर का कोई भी नियत समय नहीं है', न उस में ठंड वा गर्मी का कोई नियम है और म उस के वेग की ही तादाव है, क्योंकि यह ज्वर किसी समय थोड़ा तथा किसी समय अधिक रहता है, किसी समय ठंड और किसी समय गर्मी म कर चढ़ता है, किसी समय अधिक वेग से और किसी समय मन्द ( कम ) बेग से पड़ता है तथा इस ज्वर में प्राय वित्त का कोप होता है । 'भेद - बिपम ज्वर के पांच भेद हैं- सन्तत, सतत मन्येयुष्क (एकान्तरा), वेबरा ----- और भौमिया, अब इन के स्वरूप का वर्णन किया जाता है: १ - सन्तस - बहुत विनतक बिना उसरे ही भर्थात् एकसहस्र रहनेवाले ज्वर को सन्त कहते है, यह ज्वर भाविक (बायु से उत्पन्न हुआ) सात दिन तक, वैधिक (पिव से उत्पन्न हुआ) दश दिन तक और कफन ( फफ से उत्पन्न हुआ ) बारह दिन तक अपने २ दोष की शक्ति के अनुसार रह कर चला जाता है, परन्तु पीछे ( उतर कर पुनः ) फिर भी बहुत दिनों तक भाता रहता है, यह उपर शरीर के रस नामक बाडु में रहता है। १- वास्प यह है कि जब प्राणी का परचम भाता है तब अल्प दरोप भी अहित बाहर और विकार के सेवन से पूर्ण होकर रस और रच आदि किसी धातु में प्राप्त क्षेचन तथा उसको पुति (विवार) कर फिर विषम ज्वर को उत्पन्न कर देता है २- अर्थात् ज्वर की प्रारम्भरक्षा में धन बराब मा वि है तब भी वह वर विकृत कर दिवमज्जर हो जाता है । हवा का सेवन भवना प्रवेश आदि से बातা यह है कि-जैसे 1- विषमज्वर का कोई भी स्थित समय नहीं है इसका परसात रात्रि तक पित्तज्वर दत्र रात्रि तक तथा फरार पनि (दिम) तक रहता है प्रक्क बैम होने से वाक्यम्य च दिन तक पित्तम्बर तीस मन तक तथा फ्बर चौबीस दिन तक रहता है इस प्रकार विषमज्वर नहीं रहता है, अर्बाद इस का नियमित काक नहीं है तथा इस के मेन का भी निगम नहीं है अर्थात् कभी प्रबन्ध प्रेम से भय है और कभी मन्द मेम से बड़ा है ॥ ४सेर भित्र है, क्योंकि प्रवराना दिन में दो रा एक बार दिन में और एक बार रात्रि में क्वाक-मस्येक दोष का रात दिन में दो बार प्रकोपका समय है परन्तु वहाँ है, क्योंकि यह तो अपनी स्थिति के समय बराबर बना ही रहता है ५-परन्तु किसी बाबाकों को सम्म किनहर घर के रख और एक नामक (दोनों) तुओं रहा है।
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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