SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 658
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६२६ चैनसम्पदा शिक्षा ॥' विन से ममा ठाकरसी जी को फोठारी जी के नाम से पुकारने लगी, इन्हीं से कोठारी नल हुमा भर्मात् ठाकरसी भी की औलादनाले खोग कोठारी कहलाने बगे, कुकुड़ पड़ा गोत्र की मे (नीचे लिखी हुई) चार शाखायें हुई १-कोठारी । २-जुबकिया । २ -- धूपिया । ४--जोगिया ॥ इनमें से जुभक्रिया मावि सीन चाखा वाले पहिरने की स्वास मनाई की गई है परन्तु यह ( मनाई ) का क्या कारण है इस बात का ठीक २ पता नहीं लगा है ।। arat सस्या - धाडीवाल गोत्र || - लोगों के कुटुम्ब में बजने वाले गहनों के मनाइ क्यों की गई है भर्षात् इस गुजरात देव में डीडी जी नामक एक स्त्रीची रामपूर्व भाड़ा मारता मा, उस को क्रिम संवत् ११५५ ( एक हजार एक सौ पचपन ) में बानायाम पद पर स्थित श्री मिन पलभरि भी मद्दाराम ने प्रतिवोष देकर उस का माहाजन मश और पाड़ीवाल गोत्र स्थापित किया, डीडों बी की सातवीं पीढी में चांवल भी हुए, बिम्हों ने राम के कोठार का काम किया था, इसलिये उन की मौसादवाले लोग कोठारी कहछाने लगे, सेडो श्री writers aषपुर की रियासत के तिंवरी गांव में आकर बसे थे, उन के सिर पर टॉट भी इस लिये गाँववाले लोग सेडो जी को हौटिमा २ ह कर पुकारने लगे, अब पुन उनकी मौचाववाले लोग भी टॉटिया कमाने लगे ॥ पाँचवीं सम्या - लालाणी, वाँठिया, विरमेचा, हरखावत, साह और महावत गोत्र ॥ विक्रम संवत् ११६७ ( एक हजार एक सौ सड़सठ ) में पॅबार राजपूत छालसिंह को खरतरगच्छाधिपति मैनाचाम श्री जिनबलमसूरि जी महाराज न प्रतिबोध देकर उसक माहाजन बंध और वाणी गोत्र स्थापित किया, साबसिंह के साथ पुत्र थे जिनमें से बड़ा पुत्र बहुत वठ भर्षात् जोरावर या, उसी से वॉठिया गोत्र माया, इसी प्रकार दूसरे चार पुत्रों के नाम से उन के भी परिवार बाछे खोग विरमेचा, हरसाठ, साह भर मला मत कहलाने को || सूचना - युगप्रधान जैनाभाय भी जिनदधसूरि जी (जो कि बड़े वादा भी के नाम से चैनसंप में प्रसिद्ध दें) महाराज ने विक्रम संवत् ११०० (एक हजार एक स सत्तर) से लेकर विक्रम संवत् १२१० (एक हजार दो सौ दक्ष ) तक में राजपूत, मह श्वरी वैश्य और माम्रण बनवालों को प्रतिबोध बेकर सपा का भाव मनाव में, इसके १९६९ में १३५११३९ में शेषा ११४१ मे 1311 आभार ११ दिन अजगर मगर वहु
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy