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________________ ५४६ बैनसम्प्रदायशिक्षा ॥ से रोगी की निद्रा (नीव) में मग (विम) परता है', पैरों के हारों पर, पाप के हाड़ों पर सपा बोस की हाँसी के हाड़ों पर इस मकार के टेकरे विक्षेप वेसने में आते हैं, इस के सिवाय सुनी भौर सोपड़ी के ऊपर भी ऐसे टेफरे हो बासे हैं तमा हारम मीवरी माग भी सड़ने लगता है जिस से वह हार गर कर आखिरकार मृत्यु हो जाती है। ६-कमी २ सन्धिवायु के समान पहिले से ही सॉषे (मोरों के सान ) बकर बाते हैं मौर विशेषकर बने साँचे नकर जाते है मिस से रोगी को हम पैरों प हिलना उमना भी पति कठिन हो जाता है, कमी २ छोटी मगुरियों के तमा पैरों के भी समि बकर नाते हैं तमा सूत्र आते हैं मोर कमर में भी यादी भर जाती है, यपपि सौपे गोरे ही दिनों में अच्छे हो आते हैं तथापि वे पहुत समय तक रोगी को कष्ट पहुँचाते रहते हैं। __ --कमी २ शरीर के किसी दूसरे स्थान में विसई देने के पूर्व माँस दुमनी भावी है सपा भी २ मॉल का दर्द पीछे से उठता है, आँस में कनीनिका (माफन ) का परम (शोष) हो वाता है, कनीनिका के सूम बाने पर उस के उपर डीफ (स) नाम का रस उत्पन हो जाता है जिस से कनीनिका पिफ माती है मौर फीकी विस्तृत नही होती है, मौल मस हो माती है तथा उस में भौर मस्तक ( माने) में मतिसम वेदना (बहुत ही पीरा) होती है, इस लिये रोगी को रात्रि में निद्रा का माना कठिन हो जाता है, केवल इसना ही नहीं किन्तु मदि ठीक समय पर बोस की समान (सपरगीरी) ने की चापे तो आँस निकम्मी हो जाती है और ष्टि का समूल नाण -~-हो नाता है। तीसरे विभाग के विज छ अनों के होते हैं तथा इछ अनों के नहीं होते हैं परन्त जिन गेगों के ये (सीसरे विभाग के) पिड होते हैं उनके मे पिया तो कई वर्षों एक क्रम २ से (एक के पीछे दूसरा इस क्रम से) हुमा कासे है अथवा पारंबार एक ही प्रकार का चित्र होता रहता है अर्थात् एक ही पर्व उठसा रहता है, इस विभाग के चिहों का प्रारम बोरे महुत पर्षों के पीछे होता हैवमा अब रोगी की सवियत महुत ही भठक हो जाती है उस समय उन का मोर विशेष मानस पड़ता है। छीफ मामक यो रस उत्पन्न होता रे उस रस का साव (सरार) शेकर भवयों में गांठे प नावी रे तथा यह परिवर्तन (फेरफार) लेना, फेफसा, मगम और दूसरे - रोपे गरेभरमाराम पूरपार मई मादी है। -शघिमायु समाम भात् मिस प्रसार सम्पियामुग में अपनापसी प्रमर 1-सामिपुर -अमर तोमरे व पिक निस मनुष्प सप सप विक एक पिर समय तक कार्य पेठेवरभपरा न खिों में प्रमी या एसी विद पार पम्ता भन्न पसाव रोपावा भी मिय
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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