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________________ ६२१ पचम अध्याय ॥ प्रथम संख्या-संचेती (सचंती) गोत्र ॥ विक्रम संवत् १०२६ (एक हजार छब्बीस ) में जैनाचार्य श्री वर्धमानमूरि जी महाराज ने मोनीगरा चौहान बोहित्य कुमार को प्रतिबोध देकर उस का माहाजन वश और सचेती गोत्र म्यापित किया। अजमेरनिवासी संचतीगोत्रभूषण मेट श्री वृद्धिचन्द्र जी ने सरतरगच्छीय उपाध्याय श्री रामचन्द्र जी गणी (जो कि लश्कर में बड़े नामी विद्वान् और पट् शास्त्र के ज्ञाता हो गये हैं ) महाराज से भगवतीसूत्र सुना और तदनन्तर शत्रुजव का मह निकाला, कुछ समय के बाद शेत्रुजय गिरनार और आव आदि की यात्रा करते हुए माम्बलदास्थ (नारवाड देश में स्थित ) फलोधी पार्थनाय नामक स्थान में आये, उस समय फलवी पाधनाथ खामी के मन्दिर के चाग और काटी की बाड का पडकोटा था, उक्त विद्वर्य उपा-याय जी महागन ने वर्मोपदेश के समय यह कहा कि-"वृद्विचन्द्र ! लदमी लगा कर उस का लाभ लेने का यह म्यान है।" इस वचन को सुन कर सेट वृद्धिचन्द्रजी ने फल. वा पाधनाथ न्वामी के मन्दिर का जीर्णोद्धार करवा दिया और उस के चारो तरफ पछा मगीन पडकोटा भी बनवा दिया जो कि जब भी मौजूद है ॥ १-नदा त्रयोदय मायाण उत्रोद्दालक चन्द्रावती नगरी स्थापफ पोरवाट ज्ञानी श्री विमल मन्धिणा श्री भदाचले हरभदेवनामाद चारित.। तत्राद्यापि पिमल वसही इति प्रशिद्धिरन्ति । तत श्रीवर्धमानसरि सवत् १०८८ मध्य प्रतिष्टा रला प्रान्तऽनगन गृहीला वर्ग गत ॥ दस तीर्थ पर वापिरोत्सव प्रतिवर्ष नासाज दि नपणी और दगी को हुआ करता है, उस समय मापारणतया (आम तौर पर ) ममम्न देशों के और विगेपतया (माम तौर पर ) राजपूताना और मार. पार के यात्री जन अनुमान दश पन्द्रह सहस्र इस्टे होते ह, हम ने सन से प्रथम सवत् १९५८ के शास मास में मुर्शिदाबाद (अजीमग ) से बीकानेर को जाते समय इस स्थान की यात्रा की थी, दर्शन के समय गुहटत्तानाय से अनुमान पन्द्रह मिनट तक हम ने ध्यान किया था, उस समय इम तीर्थ का जो चमत्कार हम ने देखा तथा उम से हम को जो आनन्द प्राप्त हुआ उरा का हम वर्णन नहीं कर सकते हैं, उस के पश्चात् चित्त में यह जमिलापा वरावर वनी रही कि किसी समय वार्षिकोत्सव पर अपय चलना चाहिये, क्योंकि ऐसा करने से एक पन्थ दो कान होंगे परन्तु कार्यवश वह अभिलापा बहुत समय के पश्चात् पूर्ण हुई अर्थात् सवत् १२६३ में वार्षिकोत्सव पर हमारा वहा गमन हुआ, वहाँ जाकर यद्यपि हम अनेक प्रकार के मानन्द प्राप्त हुए परन्तु उन में से कुछ आनन्दों का तो वर्णन किये विना लेसनी नहीं मानती है अत वर्णन करना ही पड़ता है, प्रथम तो वहाँ जोवपुरनिवासी श्री कानमल जी पटवा के मुस से नवपटपूना का गाना मुन कर हम अतीन आनन्द प्राप्त हुआ, दुसरे उसी कार्य में पूजा के समय जोधपुरनिवासी विद्वर्य उपाध्याय श्री जुहारमल जी गणी वीच २ में अनेक जगहों पर पूजा का अर्थ कर रहे थे (जो कि गुदगमशेली से अर्थ की धारणा करने की वाठा रखनेवाले तथा भव्य जीवों के मुनने
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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