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( n) मैं फिर भी पा पाई रिच नही होवे क्या र विष पाचे पीप पार्मिक कार्यों में भी माग नहीं नेत नसे पार्मिक मनों को भेष्ठ सी, समझो रे भपितु उन से सदैव कर दी गर्म होता है बिन फल उनके लिए पय पोनि पा नरक महि है।
सम्मों । इस पखपण पाना मीप पदापि मेप पर्म में पपिए नो दोवा मैम साप का दिप पगलने व समाप होता है ठोसमी प्रसार प्रापिच का जीरा ससमाप मी निर्दए माग में दीपावएप सदापारी नीय का प्रपर विच पाता दी हाना चाहिए ।
-मीर-पाप कर्म करने से मप मानना पी भीरशमा पराव पापकर्म से सदैव मप मानता रोम खो-साप मामिलादि पशुओं से परवपाशन से म मानत परामादि म भप मानकर पसी मकार पापधर्मामी मप मामना चाहिए क्योंकि नार्म किपा गपापा फल प्रपरपमेव देगा भाष! पाप करत मप साना पाहिए, फिम्नु पमेपर एनिमी बन जाना पारिय-माता पिता का रामारि यी परि पर्म से प्रति