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________________ ( १.५ ) बोलने वाता किसी को भी अप्रिय नहीं लगता जो उक्त गुणों से गिरे हुए हैं वे किसी को भी पिय नहीं लगत क्यों कि लोक तो जिस प्रकार देखते हैं उसी प्रकार कष्ट देत है अतएव लोक प्रिय वनना अपने स्वाधान हो है जब अवगुणों को छोड़ दिया तब अपने आप सब का प्रिय लगने लग जाता है-जैसे क्रोध,माया, लोय, छल, चुगली, धूर्तयना, हठ, इत्यादि जव अवगुणों को छोडदिया तद लोक प्रिय वनना कोई कठिन नहीं है फिर उत्तम वही होता है जो अपने गुणों से सुप्रसिद्ध हो-किन्तु जो पिता के नाम से प्रसिद्ध है वह मध्यम है इस लिये ! उत्तम गुणों द्वारा लोक में सुप्रतिष्ठित होना चाहिये। इसी से लोक में वा रानादि की सभा में माननीय पुरुष बन जाता है। ५-अकरचित्त-चित्त क्रूर न होना चाहिए-जिन मात्माओं का चित्त क्रूर होता है वह निर्दयी कहलाते है क्रूर चित्त वाले प्रात्मा किसी पर भी परोपकार नहीं कर सकते वे सदैव औरों को छलने के भावों में लगे - रहते हैं उन के सामने यदि कोई हिंसादि क्रियाएँ करते
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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