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________________ चतुर्थ अध्याय ।। ५९५ २८-लहसुन १०० टकेभर, काले तिल पावभर, हींग, त्रिकुटा, सज्जीखार, जवाखार पाचो निर्मक, सौंफ, हलदी, कूठ, पीपरामूल, चित्रक, अजमोदा, अजवायन और धनिया, ये सब प्रत्येक एक एक टकाभर लेकर इन का चूर्ण कर लेना चाहिये तथा इस चूर्ण को घी के पात्र में भर के रख देना चाहिये, १६ दिन बीत जाने के बाद उस में आध सेर कडुआ तेल मिला देना चाहिये तथा आधसेर कांजी मिला देना चाहिये, फिर इस में से एक तोले भर नित्य खाना चाहिये तथा इस के ऊपर से जल पीना चाहिये, इस के सेवन से आमवात, रक्तवात, सौगंवात, एकागवात, अपस्मार, मन्दाग्नि, श्वास, खांसी, विष, उन्माद, वातभम और शूल, ये सब रोग नष्ट हो जाते हैं। २९-लहसुन का रस एक तोला तथा गाय का घी एक तोला, इन दोनों को मिला कर पीना चाहिये, इस के पीने से आमवात रोग अवश्य नष्ट हो जाता है । . ३०-सामान्य वातव्याधि की चिकित्सा में जो ग्रन्थान्तरों में रसोनाष्टक औषध लिखा है वह भी इस रोग में अत्यन्त हितकारक है। ३१-लेप-सोंफ, वच, सोंठ, गोखुरू, वरना की छाल, पुनर्नवा, देवदारु, कचूर, गोरखमुंडी, प्रसारणी, अरनी और मैनफल, इन सब औषधों को काजी अथवा सिरके में वारीक पीस कर गर्म २ लेप करना चाहिये, इस से आमवात नष्ट होता है। ___३२-कलहीस, केवुक की जड, सहजना और बमई की मिट्टी, इन सब को गोमूत्र में पीसकर गाढ़ा २ लेप करने से आमवात रोग मिट जाता है। ३३-चित्रक, कुटकी, पाढ, इन्द्रजौ, अतीस, गिलोय, देवदारु, बच मोथा, सौंठ और हरड, इन ओषधियों का काथ पीने से आमवात रोग शान्त हो जाता है। ३४-कचूर, सोंठ, हरड, वच, देवदारु, अतीस और गिलोय, इन ओषधियों का काथ आम को पचाता है परन्तु इस वाथ के पीने के समय रूखा भोजन करना चाहिये । __३५-पुनर्नवा, कटेरी, मरुआ, मूर्वा और सहजना, ये सब ओषधिया क्रम से एक, दो, तीन, चार तथा पाच भाग लेनी चाहिये तथा इन का काथ बना कर पीना चाहिये, इस के पीने से आमवात रोग शान्त हो जाता है । १-त्रिकुटा अर्थात् सोंठ, मिर्च और पीपल ॥ २-पाँची निमक अर्थात् संधानिमक, सौवर्चलनिमक, कालानिमक, सामुद्रनिमक और औद्भिदनिमक ॥ ३-कधुआ तेल अर्थात् सरसों का तेल ॥ ४-सर्वागवात अर्थात् सव अंगो की वादी और एकानवात अर्थात् किसी एक अग की वादी ॥ ५-अपस्मार अर्थात् मृगीरोग ॥ ६-इसे मापा में पसरन कहते है, यह एक प्रसर जाति की (फैलनेवाली ) वनस्पति होती है । ७-इसे हिन्दी में केउऑ भी कहते हैं ।। ८-वमई को सस्कृत मे वल्मीक कहते हैं, यह एक मिट्टी का ढीला होता है जिसे पुत्तिका ( कीटविशेष) इकट्ठा करती है, इसे भाषा में वमोटा भी कहते हैं।
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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