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________________ { चतुर्थ अध्याय || ५३१ ६ - लवेंडर अथवा कोलन वाटर में दो भाग पानी मिला कर तथा उस में कपडे को भिगा कर शिर पर रखना चाहिये, गुलावजल अथवा गुलाबजल के साथ चन्दन को घिस कर अथवा उस में सांभर के सींग को घिस कर लगाना चाहिये चाहिये तथा पैरों को गर्म जल ७- अमोनिया अर्थात् नौसादर और चूने को सुँघाना में रखना और शिर को दवाना चाहिये । ८- भौंओ पर दो जोंके लगानी चाहियें । ९ - इस रोगी को नकळीकनी सूँघनी चाहिये तथा सूर्योदय ( सूर्य निकलने ) के पहिले तुलसी और धतूरे के पत्तो का रस सूँघना चाहिये । १०- घी में पीसे हुए संधे निमक को मिला कर उसे दिन मे पाच सात बार सूंघना चाहिये, इस से आधाशीशी का दर्द अवश्य जाता रहता है । ११ - इस रोग में ताजी जलेवी तथा ताजा खोवा (मावा) खाना चाहिये | १२-नींत्र पर की गिलोय का हिम पीने से भी इस रोग में बहुत फायदा होता है । उपदंश (गर्मी), चाँदी, टांकी, का वर्णन ॥ चाँदी का रोग बहुधा मनुष्य के वेश्यागमन ( रडीवाजी के करने ) से होता है, तात्पर्य (मतलब ) यह है कि- स्वाभाविक अर्थात् कुदरती नियम के अनुसार न चल कर उस का भग करने से चुरे कार्य की यह जन्म भर के लिये सजा मिल जाती है । जिस प्रकार यह रोग पुरुष के होता है उसी प्रकार स्त्री के भी होता है ! चॉदी एक प्रकार का चेपी रोग है, अर्थात् चॉदी की रसी (पीप) का चेप यदि किसी के लग जावे वा लगाया जावे तो उस के भी चॉदी उत्पन्न हो जाती है । पहिले चॉदी और सुजाख, इन दोनो रोगों को एक ही समझा जाता था परन्तु अब यह बात नही मानी जाती है, अर्थात् बुद्धिमानों ने अब यह निश्चय किया है कि-चॉदी और सुज़ाख, ये दोनों अलग २ रोग है, क्योंकि सुजाख के चेप से होता है और चॉदी के चेप से चाँदी ही उत्पन्न होती है, सुजाख ही उत्पन्न इस लिये इन दोनों को १- इस के सुँघाने से मगज में से विकृत ( विकारयुक्त) जल नासिका के द्वारा निकल जाता है, अत यह रोग मिट जाता है ॥ २-पैरो को गर्म जल में रखने से पानी की गर्मी नाडी के द्वारा मगज में पहुँच कर वायु का शमन कर देती है, जिस से रोगी को फायदा पहुँचता है ॥ ३~क्योंकि जोंकों के लगाने से वे (जोके ) भीतरी विकार को चूस लेती है, जिस से रोग मिट आता हे ॥ ४–ऐसा करने से मगज में शक्ति के पहुंचने से यह रोग मिट जाता है ॥ ५- और चाँदी तथा सुजारा के स्वरूप में तथा लक्षणों मे बहुत भेद है ॥
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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