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________________ १६६ बैनसम्प्रदायशिक्षा || इन लक्षणों के सिवाय वाग्मट्टने ये भी क्षण कहे हैं कि इस ज्वर में चीत गया है, दिन में घोर निद्रा भावी है, रात्रिमें नित्य जागता है, भगवा निद्रा कमी नहीं बाती है, पसीना बहुत आता है, यथषा धाता ही नहीं है, रोगी कभी गान करता है ( गाया है), कभी नाचता है, कभी हँसता और रोता है तथा उस की चेष्टा पकट (बदल) जाती है, इत्यादि । यह भी स्मरण रहे कि इन लक्षणों में से गोड़े क्षण कष्टसाध्य में और पूरे ( ऊपर कहे हुए सब ) क्षण प्रायः असाध्य सन्निपात में होते हैं । विशेपवक्तव्य – सन्निपातज्वर में जब रोगी के दोपों का पाचन होता है अर्थात् मल पकते हैं वष ही आराम होता है अर्थात् रोगी होल में भाता है, यह भी जान लेना चाहिये कि जब दोषों का वेग (बोर) कम होता है तब भाराम होने की अभि ( मुद्दव) सात दश वा बारह दिन की होती है, परन्तु यदि दोप अधिक बलवान् हो वो आराम होने की अवधि चौदह बीस वा चौबीस दिन की जाननी चाहिये, यह भी स्मरण रस्तना चाहिये कि - सन्निपात ज्वर में बहुत ही संभाल रखनी चाहिये, किसी तरह की गड़बड़ नहीं करनी चाहिये भर्थात् अपने मनमाना तथा मूर्ख वैद्य से रोगी का कभी इलाज नहीं करवाना चाहिये, किन्तु बहुत ही धैर्य ( धीरज ) के साथ चतुर वैद्य से परीक्षा करा के उस के कहने के अनुसार रस आदि वना देनी चाहिये, क्योंकि सनिपात में रस आदि दवा ही माम विक्षेप साम पहुँचाती है, हां चतुर वैद्य की सम्मति से दिये हुए फाष्ठादि ओपधियों के काने भावि से भी फायदा होता है, परन्तु पूरे तौर से सो फायदा इस रोग में रसादि दबा से ही होता है और उन रसों की दना में भी शीघ्र ही फायदा पहुँचानेवाले मे रस मुख्य है- हेमगर्भ, अमृतसञ्जीवनी, मकरध्यम, पड्गुणगन्मक मौर चन्द्रोदय मावि, ये सब प्रधानरस पान के रस के साथ, भार्तक (नवरा) के रसमें, सोंठ के साथ, छौंग के साथ सभा तुळसी के पत्तों के रस के साथ देने चाहियें, परन्तु यदि रोगी की जबान मन्य हो सो सहजने की छाल के रस के साथ इन में से किसी रस को मरा गर्म कर के देना चाहिये, अथवा असली भम्बर वा कस्तूरी के साथ देना चाहिये । यदि ऊपर कड़े हुए रसों में से कोई भी रस विद्यमान ( मौजूद ) न हो तो साधारण रस ही इस रोग में देने पाहियें जैसे- माझी गुटिका, मोहरा गुटिका, त्रिपुरभैरव, भावन्द भैरब और भमरसुन्दरी भादि, क्योंकि मे रस भी सामान्य (साधारण) दोष में काम वे ये हैं । इन के सिवाय तीक्ष्ण ( तेज ) नस्म का देना सभा सीक्ष्ण अजन का भोस्तों में डालना आदि किया भी विद्वान् बैच के कथनानुसार करनी चाहिये ।
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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