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________________ पञ्चम अध्याय || ७०१ इस विषय में यह भी स्मरण रखना चाहिये कि-दूसरे सत्पुरुषों के वार्त्तमानिक ( वर्तमान काल के ) सच्चरित्र मनुष्य पर उतना प्रभाव नहीं डाल सकते है जितना कि भूतकालिक ( भूत काल के ) डाल सकते है, क्योकि वार्तमानिक सच्चरित्रों का फल आगामिकालभावी ( भविष्यत् काल में होने वाला ) है, इस लिये उस विषय में मनुष्य का आत्मा उतना विश्वस्त नहीं होता है जितना कि भूतकाल के सच्चरित्रो के फल पर विश्वस्त होता है, क्योकि-भूतकाल के सच्चरित्रों का फल उस के प्रत्यक्ष होता है ( कि अमुक पुरुष ने ऐसा सच्चरित्र किया इस लिये उसे यह शुभ फल प्राप्त हुआ) इस लिये आवश्यक हुआ फि-मनुष्य को भूतकालिक चरित्र का अनुभव होना चाहिये, इसी भूतकालिक चरित्र को ऐतिहासिक विषय कहते है। ऐतिहासिक विषय के दो भेद हैं-ऐतिहासिक वृत्त और ऐतिहासिक घटना, इन में से पूर्व भेद में पूर्वकालिक पुरुषों के जीवनचरित्रों का समावेश होता है तथा दूसरे भद में पूर्व काल में हुई सब घटनाओं का समावेश होता है, इस लिये मनुष्य को उक्त दोनों विषयों के ग्रन्थों को अवश्य देखना चाहिये, क्योंकि इन दोनों विषयो के ग्रन्थों के अवलोकन से अनेक प्रकार के लाभ प्राप्त होते है । स्मरण रहे कि-जीवन के लक्ष्य के नियत करने के लिये जिस प्रकार मनुष्य को ऐतिहासिक विषय के जानने की आवश्यकता है उसी प्रकार उसे पदार्थविज्ञान की भी आवश्यकता है क्योंकि पदार्थविज्ञान के विना भी मनुष्य अनेक समयों में और अनेक स्थानो में धोखा खा जाता है और धोखे का खाना ही अपने लक्ष्य से चूकना है इसी लिये पूर्वीय विद्वानों ने इन दोनो विषयो का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध माना है, अतः मनुष्य को पदार्थविज्ञान के विषय में भी यथाशक्य अवश्य परिश्रम करना चाहिये । यह पञ्चम अध्याय का ऐतिहासिक व पदार्थविज्ञानवर्णन नामक सातवॉ प्रकरण समाप्त हुआ। आठवाँ प्रकरण-राजनियमवर्णन ॥ राजनियमों के साथ प्रजा का सम्बन्ध ॥ धर्मशास्त्रों का कथन है कि-राजा और प्रजा का सम्बध ठीक पिता और पत्रके समान है, अर्थात् जिस प्रकार सुयोग्य पिता अपने पुत्र की सर्वेथा रक्षा करता है उसी प्रकार राजा का धर्म है कि वह अपनी प्रजा की रक्षा करे, एव जिस प्रकार सुयोग्य पुत्र अपने पिता के अनेक उपकारों का विचार कर भक्त हो कर सर्वथा उस की आज्ञा का
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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