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________________ चतुर्थ अध्याय ॥ दोहा - ऋतू लगन में आठ दिन, जब होवै उपचार || त्यागि पूर्व ऋतु को अगिल, वरतै ऋतु अनुसार ॥ २ ॥ २८१ अर्थात् मेप और वृष की सङ्कान्ति में ग्रीष्म ऋतु, मिथुन और कर्क की सङ्कान्ति में प्रावृट् ऋतु, सिंह और कन्या की सक्रान्ति में वर्षा ऋतु, तुला और वृश्चिक की सङ्क्रान्ति मैं शरद् ऋतु, धन और मकर की सङ्क्रान्ति में हेमन्त ऋतु, (हेमन्त ऋतु में जब मेघ वरसे और ओले गिरें तथा शीत अधिक पडे तो वही हेमन्त ऋतु शिशिर ऋतु कहलाती है ) तथा कुम्भ और मीन की सङ्क्रान्ति में वसन्त ऋतु होती है ॥ १ ॥ जब दूसरी ऋतु के लगने में आठ दिन बाकी रहें तब ही से पिछली ( गत ) ऋतु की चर्या (व्यवहार) को धीरे २ छोड़ना और अगली (आगामी) ऋतु की चर्या को ग्रहण करना चाहिये ॥ २ ॥ यद्यपि ऋतु में करने योग्य कुछ आवश्यक आहार विहार को ऋतु स्वयमेव मनुष्य से करा लेती है, जैसे-देखो । जब ठढ पडती है तब मनुष्य को खय ही गर्म वस्त्र आदि वस्तुओं की इच्छा हो जाती है, इसी प्रकार जब गर्मी पडती है तब महीन वस और उढे जल आदि वस्तुओंकी इच्छा प्राणी स्वतः ही करता है, इस के अतिरिक्त इग्लैंड और काबुल आदि ठढे देशों में ( जहा ठढ सदा ही अधिक रहती है) उन्हीं देशों के अनुकूल सब साधन प्राणी को खय करने पड़ते है, इस हिन्दुस्थान में ग्रीष्म ऋतु में भी क्षेत्र की तासीर से चार पहाड़ बहुत ठढे रहते है - उत्तर में विजयोर्घ, दक्षिण में नीलगिरि, पश्चिम में आबूराज और पूर्व में दार्जिलिंग, इन पहाडों पर रहने के समय गर्मी की ऋतु में भी मनुष्यों को शीत ऋतु के समान सब साधनो का सम्पादन करना पडता है, इससे सिद्ध है कि ऋतु सम्बधी कुछ आवश्यक बातों के उपयोग को तो ऋतु स्वय मनुष्य से करा लेती है तथा ऋतुसम्बन्धी कुछ आवश्यक बातों को सामान्य लोग भी थोडा बहुत समझते ही है, क्योंकि यदि समझते न होते तो वैसा व्यवहार कभी नहीं कर सकते थे, जैसे देखो । हवा के गर्म से शर्द तथा शर्द से गर्म होने रूप परिवर्तन को प्रायः सामान्य लोग भी थोड़ा बहुत समझते है तथा जितना समझते है उसी के अनुसार यथाशक्ति उपाय भी करते है परन्तु ऋतुओं के शीत और उष्णरूप परिवर्तन से शरीर में क्या २ परिवर्तन होता है और छ. ओ ऋतुयें दो २ मास तक वातावरण में किस २ प्रकार का परिवर्तन करती हैं, उस का अपने शरीर पर कैसा असर होता है तथा उस के लिये क्या २ उपयोगी वर्ताव (आहार विहार आदि) करना चाहिये, इन बातों को बहुत ही कम लोग १- इस पर्वत को इस समय लोग हिमालय कहते हैं ॥ २- कालान्तर में इन पर्वतों की यदि नारो आश्चर्य नहीं है ॥ ३६
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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