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________________ ५२९ चतुर्थ अध्याय ॥ वहुत फायदा करती है, परन्तु पिचकारी सदा मारनी चाहिये, और तीन चार दिन के बाद जुलाब देते रहना चाहिये । १०-पलासपोपडे की बुरकी (चूर्ण) पाव तोला (चार आने भर ) और बायविउग पाव तोला, इन दोनों को छाछ में पिला कर दूसरे दिन जुलाव देना चाहिये । ११-वायविडग के काथ में उसी ( वायविडग ) का चूर्ण डाल कर पिलाना चाहिये, अथवा उसे शहद में चटाना चाहिये। १२-पलासपापड़े को जल में पीस कर तथा उस में शहद डाल कर पिलाना चाहिये। १३-नीव के पत्तों का वफाया हुआ रस शहद मिला कर पिलाना चाहिये । १४-कृमियों के निकल जाने के पीछे बच्चे की तन्दुरुस्ती को सुधारने के लिये टिंकचर आफ स्टील की दश वूदों को एक औस जल में मिला कर कुछ दिनों तक पिलाते रहना चाहिये। विशेषसूचना-इस रोग में तिल का तेल, तीखे और कडए पदार्थ, निमक, गोमूत्र ( गाय की पेशाव), शहद, होग, अजवायन, नींबू, लहसुन और कफनाशक (कफ को नष्ट करने वाले ) तथा रक्तशोधक (खून को साफ करने वाले) पदार्थ पथ्य है, तथा दूध, मास, घी, दही, पत्तों का शाक, खट्टा तथा मीठा रस और आटे के पदार्थ, ये सब पदार्थ कुपथ्य अर्थात् कृमियों को बढ़ाने वाले है, यदि कृमिवाले बच्चे को रोटी देना हो तो आटे में निमक डाल कर तवे पर तेल से तल कर देनी चाहिये, क्योंकि यह 7 के लिये लाभदायक ( फायदेमन्द ) है ॥ आधाशीशी का वर्णन ॥ कारण-आधाशीशी का दर्द प्रायः भौओं में विशेष रहता है तथा यह (आधातीशी का ) दर्द मलेरिया की विषैली हवा से उत्पन्न होता है और ज्वर के समान नियत समय पर शिर में प्रारम्भ होता है, इस रोग में आधे दिनतक प्रायः शिर में दर्द अधिक रहता है, पीछे धीरे २ कम होता जाता है अर्थात् सायकाल को विलकुल वंद १-पलासपापडे की बुरकी अर्थात् ढाक के वीजों का चूर्ण ॥ २-वायविडग डालकर औटाये हुए जल में बायविडग का ही वधार देकर तैयार कर लेना चाहिये, इस के पीने से कृमिरोग और कृमिरोगजन्य सव रोग दूर हो जाते हैं । ३-धतूरे के पत्तों का रस भी शहद डाल कर पीने से कृमिरोग नष्ट हो जाता है । ४-क्योंकि टिंक्चर आफ स्टील शक्तिप्रद ( ताकत देनेवाली) ओपधि है ॥ ५-ग्यारह प्रकार के मस्तक रोगों ( मस्तक सम्बधी रोगों) मे से यह आधाशीशी नामक एक भेद है, इस को सस्कृत में अधीवभेदक कहते हैं, इस रोग में प्राय आधे शिर मे महाकठिन दर्द होता है ।। ६-नियत समय पर इस का प्रारंभ होता है तथा नियत समय पर ही इस की पीडा मिटती है। ७-अर्थात् ज्यों २ सूर्य चटता है यों २ यह दर्द वढता जाता है तथा ज्यों २ सूर्य ढलता है त्यों २ यह दर्द भी कम होता जाता है ।
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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