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________________ चतुर्थ अध्याय ॥ २२९ बेरों में प्रायः जन्तु भी पड़ जाते है इसलिये इस प्रकार के तुच्छ फलों को जैनसूत्रकारने अभक्ष्य लिखा है, अतः इन का खाना उचित नही है | अनार - यह सर्वोत्तम फल है, इस की मुख्य दो जातियां है-मीठी और खट्टी, इन में से मीठी जाति का अनार त्रिदोषनाशक है तथा अतीसार के रोग में फायदेमन्द है, खट्टी जाति का अनार वादी तथा कफ को दूर करता है, काबुल का अनार सब से उत्तम होता है तथा कन्धार पेशावर जोधपुर और पूना आदि के भी अनार खाने में अच्छे होते हैं, इस के शर्वत का उष्णकाल में सेवन करने से बहुत लाभ होता है | केला - स्वादु, कला, कुछ ठढा, बलदायक, रुचिकर, वीर्यवर्धक, तृप्तिकारक, मांसवर्धक, पित्तनाशक तथा कफकर्त्ता है, परन्तु दुर्जर अर्थात् पचने में भारी होता है, प्यास, ग्लानि, पित्त, रक्तविकार, प्रमेह, भूख, रक्तपित्त और नेत्ररोग को मिटाता है, भस्मैकरोग में इस का फल बहुत ही फायदेमन्द है ॥ आँवला – ईषन्मधुर (कुछ मीठा), खट्टा, चरपरा, कषैला, कडुआ, दस्तावर, नेत्रों को हितकारी, बलबुद्धिदायक, वीर्यशोधक, स्मृतिदाता, पुष्टिकारक तथा त्रिदोषनाशक है, सब फलों में ऑवले का फल सर्वोत्तम तथा रसायन है - अर्थात् खट्टा होने के कारण वादी को दूर करता है, मीठा तथा ठढा होने से पित्तनाशक है, रूक्ष तथा कषैला होने से कफ को दूर करता है । ये जो गुण है वे गीले (हरे ) ऑवले के हैं, क्योंकि - सूखे ऑवले में इतने गुण नही होते है, इसलिये जहातक हरा आँवला मिल सके वहातक बाजार में बिकता हुआ सूखा ऑवला नहीं लेना चाहिये । दिल्ली तथा बनारस आदि नगरों में इस का मुरब्बा और अचार भी बनता है परन्तु मुरब्बा जैसा अच्छा बनारस में बनता है वैसा और जगह का नहीं होता हैं, वहा के ऑवले बहुत बडे होते है जो कि सेर भर में आठ तुलते है । सूखे आँवले में काली मिर्च मिलाकर चैत्र तथा आश्विन मास में भोजन के पीछे उस की फँकी बीकानेर आदि के निवासी मारवाडी लोग प्रायः हरेक रोग में लेते हैं परन्तु उन लोगों को वह अधिक गुण नहीं करता है इस का कारण यह है कि उन लोगों में तेल और लाल मिर्चका उपयोगे बहुत ही है किन्तु कभी २ उलटी हानि हो जाती है, यदि हरे अथवा सूखे आँवलों का सेवन युक्ति से किया जावे तो इस के समान दूसरी कोई १ - जिस में मनुष्य कितना ही खावे परन्तु उसकी भोजन से तृप्ति नहीं होती हैं उस को भरमक रोग कहते हैं ॥ २- वहा के लोग मिर्च इतनी डालते हैं कि शाक और दालमे केवल मिर्च ही दृष्टिगत होती है तथा कभी २ मिर्चकाही शाक बना लेते है ॥
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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