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________________ ३१५ चतुर्थ अध्याय - मुख सुगन्ध ॥ ___ पहिले कह चुके हैं कि भोजन के पश्चात् पानी के कुर्ले करके मुख को साफ कर लेना चाहिये तथा दाँतों और मसूड़ों को भी खूब शुद्ध कर लेना चाहिये, आजकल इस देश में भोजन के पश्चात् मुख सुगन्ध के लिये अनेक वस्तुओं का उपयोग किया जाता है, सो यदि मुख को पानी आदि के द्वारा ही बिलकुल साफ कर लिया जावे तो दूसरी वस्तु के उपयोग की कोई आवश्यकता नहीं रहती है, क्योंकि मुखसुगन्ध का प्रयोजन केवल मुख को साफ रखने का है, जब जलादि के द्वारा मुख और दॉत आदि विलकुल साफ हो गये तो सुपारी तथा पान चबाने आदि की कोई आवश्यकता नहीं है, हा यदि कभी विशेप रुचि वा आवश्यकता हो तो वस्तुविशेप का भी उपयोग कर लेना चाहिये परन्तु उस की आदत नही डालनी चाहिये। ___ मुखसुगन्ध के लिये अपने देश में सुपारी पान और इलायची आदि मुख्य पदार्थ है, परन्तु इस समय में तो घर घर (प्रति गृह ) चिलम हुक्का और सिगरेट ही प्रधानता के साथ वर्ताव में आते हुए देखे जाते है, पूर्व समय में इस देशवाले पुरुप इन में बड़ा ऐव समझते थे, परन्तु अब तो विछौने से उठते ही यही हरिभजनरूप बन गया है तथा इसी को अविद्या देवी के उपासकों ने मुखवासक भी ठहरा रक्खा है, यह उन की महा अज्ञानता है, देखो ! मुखवास का प्रयोजन तो केवल इतना ही है कि डाढ़ों तथा दाँतों में यदि कोई अन्न का अश रह गया हो तो किसी चावने की चीज के चावने से उस के साय में वह अन्न का अंश भी चावा जाकर साफ हो जावे तथा वह ( चावने की) चीज खुशबूदार और फायदेमन्द हो तो मुंह सुवासित भी हो जाये तथा थूक को पैदा करने वाली हो तो वह थूक होजरी में जाकर खाये हुए पदार्थ के पचाने में भी सहायक हो जावे, इसी लिये तो उक्त गुणों से युक्त नागर वेल के पान, कत्था, चूना, केसर, कस्तूरी, सुपारी, इलायची और भीमसेनी कपूर आदि पदार्थ उपयोग में लिये जाते है, परन्तु तमाखू, गाजा, सुलफा और चडूले से मुख की जैसी सुवास होती है वह तो ससार से छिपी नहीं है, यद्यपि तमाखू में थूक की पैदा करने का खभाव तो है परन्तु वह थूक ऐसा निकृष्ट होता है कि भीतर पहुँचते ही भीतर स्थित तमाम खाये पिये को उसीवख्त निकाल कर वाहर ले आता है, इस के विषय में जो बुद्धिमानों का यह कथन है कि-"इस को खावे उसका घर और मुंह भ्रष्ट, इस को पिये उसका जन्म और मुँह भ्रष्ट, इस को सूंघे उस के कपड़े भ्रष्टै" सो यह वात बिलकुल ही सत्य है तथा इस का अनुभव भी प्रायः वर्णन है। १-प्रत्याख्यान (पचक्खाण ) भाष्य की टीका में द्विविधाहार (दुविहार ) के निर्णय में मुखवास का भी २-चडूल अर्थात् चण्डू (कहना तो इसे चण्डल ही चाहिये ) 3-दक्षिण के लोग पान के साथ तमाखू खाते हैं, उन का भी यही हाल है।"
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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