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________________ पञ्चम अध्याय | ७२३ बदले अनेक हानियाँ कर बैठते है, अस्तु, - इन्ही सब बातों को विचार कर तथा गृहस्थ जनों को भी इस विद्या का कुछ अभ्यास होना आवश्यक समझ कर उन ( गृहस्थों ) से सिद्धे हो सकने योग्य इस विद्या का कुछ विज्ञान हम इस प्रकरण में लिखते है, आशा है कि- गृहस्थ जन इस के अवलम्बेन से इस विद्या के अभ्यास के द्वारा लाभ उठावेंगे, क्योंकिइस विद्या का अभ्यास इस भव और पर भव के सुख को निःसन्देह प्राप्त करा सकता है ॥ स्वरोदय का स्वरूप तथा आवश्यक नियम ॥ १–नासिका के भीतर से जो श्वास निकलता है उस का नाम खर है, उस को स्थिर चित्त के द्वारा पहिचान कर शुभाशुभ कार्यों का विचार करना चाहिये । २- खर का सम्बन्ध नाड़ियों से है, यद्यपि शरीर में नाडियाँ बहुत है परन्तु उन में से २४ नाड़ियाँ प्रधान हैं तथा उन २४ नाडियों में से नौ नाड़ियाँ अति प्रधान हैं तथा उन नौ नाडियों में भी तीन नाड़ियाँ अतिशय प्रधान मानी गई है, जिन के नामइङ्गला, पिङ्गला और सुषुम्ना ( सुखमना ) है, इन का वर्णन आगे किया जावेगा । ३–स्मरण रखना चाहिये कि - भौओं ( भवारों ) के बीच में जो चक्र है वहॉ से श्वास का प्रकाश होता है और पिछली बक नाल में हो कर नाभि में जा कर ठहरता है । ४ - दक्षिण अर्थात् दाहिने ( जीमणे ) तरफ जो श्वास नाक के द्वारा निकलता है उस को इङ्गला नाडी वा सूर्य स्वर कहते है, वाम अर्थात् बायें ( डावी ) तरफ जो श्वास नाक के द्वारा निकलता है उस को पिङ्गला नाडी वा चन्द्र स्वर कहते हैं तथा दोनों तरफ ( दाहिने और बायें तरफ अर्थात् उक्त दोनों नाडियों ( दोनों खरों ) के बीच में अर्थात् दोनों नाड़ियों के द्वारा जो खैर चलता है उस को सुखमना नाड़ी (खर ) कहते है, इन में से जब बायॉ स्वर चलता हो तब चन्द्र का उदय जानना चाहिये तथा जब दाहिना खर चलता हो तब सूर्य का उदय जानना चाहिये । १ - जरूरी ॥ २- सफल वा पूरा ॥ ३- प्रत्येक मनुष्य जब श्वास लेता है तब उस की नासिका के दोनों छेदों में से किसी एक छेद से प्रचण्डतया ( तेजी के साथ ) श्वास निकलता है तथा दूसरे छेद से मन्दतया ( धीरे २ ) श्वास निकलता है अर्थात् दोनों छेदों में से समान श्वास नहीं निकलता है, इन मे से जिस तरफ का श्वास तेजी के साथ अर्थात् अधिक निकलता हो उसी खर को चलता हुआ खर समझना चाहिये, दाहिने छेद में से जो वेग से श्वास निकले उसे सूर्य स्वर कहते हैं, वायें छेद मे से जो अधिक श्वास निकले उसे चन्द्र खर कहते हैं तथा दोनों छेदों में से जो समान श्वास निकले अथवा कभी एक में से अधिक निकले और कभी दूसरे से अधिक निकले उसे सुखमना स्वर कहते हैं, परन्तु यह ( सुखमना ) स्वर प्राय उस समय में चलता है जव कि खर वदलना चाहता है, अच्छे नीरोग मनुष्य के दिन रात में घण्टे घण्टे भर तक चन्द्र स्वर और सूर्य खर अदल बदल होते हुए चलते रहते हैं परन्तु रोगी मनुष्य के यह नियम नहीं रहता है अर्थात् उस के खर में समय की न्यूनाधिकता ( कमी ज्यादती ) भी हो जाती है ॥
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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