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________________ ( १४४ ) मन में संकोच रहता है किन्तु अप उनको किसी पुस्वकारूप का सहारा मिलमाय तो वे पहन करने में माद नहीं करते उनमें बहुत से भद्र भन ऐसे भी होत है जो बन सूत्रों या प्रन्थों का पड़कर धर्म से परिचित हो जाते हैं क्या यदि किसी कारण से किसी उपदेशक का शास्त्रार्थ नियत हो माय तब उस समय उस पुस्त कालय से पर्याप्त सहायता मिल सकती है स्वाप्पाम मेमियों को तो पुस्तकालय एक स्वर्गीय भूमि प्रतीत होती है किन्तु इसका प्रबन्ध ऐसे सुयाम्प विद्वान् पुरुषों द्वारा होना चाहिये जो कि इस कार्य के पूर्ण बेचा शास्त्रोद्धार से जोब कर्मों की निर्भरा करके मोच वक भी पहुंच सकता है अवएष सिद्ध हुआ कि धर्म प्रचार के क्षिप पुस्तकात म। एक मुख्य साधन है । "म्यरूपान” भगवा में प्रभावशाली व्याख्यानों का हाना भी मम प्रचार का मुरूयोग है क्योंकि भो व्यायाम वीमि स्थानों में प्रचलित हो रही है उसमें मिस्य के श्रोतागण ही काम पठा सकते हैं किन्तु जो पुरुष स स्थान से धमभि है या किसी कारण से उस स्थान
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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