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________________ चतुर्थ अध्याय ॥ २७७ को एक वर्त्तन में रख कर ऊपर से उबलता हुआ पानी डाल कर ठंढा हो जाने के बाद छान कर पीने से बुखार, छाती का दर्द और अमूझणी ( घबराहट ) दूर हो जाती है ॥ यह चतुर्थ अध्याय का पथ्यापथ्यवर्णन नामक छठा प्रकरण समाप्त हुआ || सातवां प्रकरण -- ऋतुचर्यावर्णन ॥ ऋतुचर्या अर्थात् ऋतु के अनुकूल आहार विहार || जैसे रोग के होने के बहुत से कारण व्यवहार नय से मनुष्यकृत है उसी प्रकार निश्चय नय से दैवकृत अर्थात् स्वभावजन्य कर्मकृत भी हैं, तत्सम्बन्धी पाच समवाय में से काल प्रधान समवाय है तथा इसी में ऋतुओं के परिवर्तन का भी समावेश होता है, देखो ! बहुत गर्मी और बहुत ठढ, ये दोनों कालधर्म के स्वाभाविक कृत्य हैं अर्थात् इन दोनों को मनुष्य किसी तरह नही रोक सकता है, यद्यपि अन्यान्य वस्तुओं के संयोग से अर्थात् रसायनिक प्रयोगों से कई एक स्वाभाविक विषयों के परि वर्त्तन में भी मनुष्य यत् किञ्चित् विजय को पा सकते हैं परन्तु वह परिवर्तन ठीक रीति से अपना कार्य न कर सकने के कारण व्यर्थ रूपसाही होता है किन्तु जो ( परिवर्तन ) कालस्वभाव वश स्वाभाविक नियम से होता रहता है वही सब प्राणियों के हित का सम्पादन करने से यथार्थ और उत्तम है इस लिये मनुष्य का उद्यम इस विषय में व्यर्थ है । के भीतर की गर्मी ऋतु के स्वाभाविक परिवर्तन से हवा में परिवर्तन होकर शरीर शर्दी में भी परिवर्तन होता है इसलिये ऋतु के परिवर्तन में हवा के तथा शरीर पर मलीन हवा का असर न होसके इस का उपाय करना काम है । स्वच्छ रखने का मनुष्य का मुख्य आसपास की हवा में वर्षभर की भिन्न २ ऋतुओं में गर्मी और ठढ के द्वारा अपने तथा हवा के योग से अपने शरीर में जो २ परिवर्तन होता है उस को समझ कर उसी के अनुसार आहारविहार के नियम के रखने को ऋतुचर्या कहते हैं । हवा में गर्मी और ठढ, ये दो गुण मुख्यतया रहते हैं परन्तु इन दोनों का परिमाण सदा एकसदृश नही होता है, क्योंकि - द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के द्वारा उन में (गर्मी और ठढ में ) परिवर्तन देखा जाता है, देखो । भरतक्षेत्र की पृथ्वी के उत्तर १ - यह पथ्यापथ्य का वर्णन सक्षेप से किया गया है, इस का शेप वर्णन वैद्यकसम्वधी अन्य ग्रन्थों मे देखना चाहिये, क्योंकि ग्रन्थ के विस्तार के भय से यहा अनावश्यक विषय का वर्णन नहीं किया है ॥ २- जैसे विना ऋतु के वृष्टिका बरसा देना आदि ॥
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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