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________________ चतुर्थ अध्याय ॥ रोगको उत्पन्न करनेवाले समीपवर्त्ती कारण ॥ रोगको उत्पन्न करनेवाले समीपवर्ती कारणों में से मुख्य कारण अठारह है और वे ये है - हवा, पानी, खुराक, कसरत, नीद, वस्त्र, विहार, मलीनता, व्यसन, विषयोग, रसविकार, जीव, चेप, ठंढ, गर्मी, मनके विकार, अकस्मात् और दवा, थे सब पृथक् २ अनेक रोगों के कारण हो जाते है, इन में से मुख्य सात बातें है जिन को अच्छे प्रकार से उपयोग में लाने से शरीर का पोपण होकर तनदुरुस्ती बनी रहती है तथा इन्ही वस्तुओं का आवश्यकता से कम अधिक अथवा विपरीत उपयोग करने से शरीर में अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न हो जाते है । 3 ३६५ { र्फ किन्तु नाक आदि भी फट और वाल बच्चे तले ऊपर गिरते हैं कि जिस से अवश्य ही दश वीस लोगों के चोट लगती है तथा एक आध मर भी जाते है, उस समय में लोभवश आये हुए बेचारे अन्धे लूले और लॅगडे आदि की तो अत्यन्त ही दुर्दशा होती है और ऐसी अन्धाधुन्धी मचती है कि कोई किसी की नही सुनता है, इधर तो ऊपर से मुट्ठी धडावड चली आती है तथा वह दूर की मुट्ठी जिस किसी की नाक वा कान मे लगती है वह वैसा ही रह जाता है, उधर लुच्चे गुडे लोग स्त्रियों की ऐसी कुदशा देख उनकी नय आदि में हाथ मार कर भागते है कि जिस से उन बेचारियों की नथ आदि तो जाती ही है जाती है, यह तो मार्ग की दशा हुई- अब आगे वढिये लूट का नाम सुनकर समधी के दर्वाजे पर भी झुड के झुण्ड लग जाते हैं और जब वहा रुपयों की मुट्ठी चलती है उस समय लूटनेवालों को वेहोसी हो जाती है और तले ऊपर गिरने से बहुत से लोग कुचल जाते हैं, किसी के दात टूटते हैं, किसी के हाथ पैर टूटते हैं, किसी के मुख आदि अगों से खून बहता है और कोई पडा २ सिसकता है इत्यादि जो २ वहा दुर्दशा होती है वह देखने ही से जानी जाती है, भला बतलाइये तो इस वखेर से क्या लाभ हैं कि जिस में ऐसे २ कौतुक हों तथा धन भी व्यर्थ में जावे ? देखो ! वखेर मे जितना रुपया फेंका जाता है। उसमे से आधे से अधिक तो मिट्टी आदि में मिल जाता है, वाकी एक तिहाई हट्टे कट्टे भगी आदि नीचों को मिलता है जिस को पाकर वे लोग खूब मास और मद्य का खान पान करते हैं तथा अन्य बुरे कामो में भी व्यय करते हैं, शेप रहा सो अन्य सामान्य जनों को मिलता है, परन्तु लूले लंगडे और अपाहिज के हाथ में तो कुछ भी नहीं आता है, वरन् उन बेचारों का तो काम हो जाता है अर्थात् अनेकों के चोटें लग जाती हैं; इस के अतिरिक्त किन्हीं २ के पहुँची, छल्ला, नथुनी और अगुठी आदि भूषण जाते रहते हैं इस दशा में चाहे पानेवाले कुछ लोग तो सेठजीकी प्रशसा भी करें परन्तु वहुधा वे जन कि जिन के चोट लग जाती है या जिन की कोई चीज जाती रहती है सेठजी तथा लालाजी के नाम को रोते ही हैं, जिन मनुष्यों को कुछ भी नहीं मिलता है वे यही कहते हैं कि सेठजी ने बखेर का तो नाम किया था, कही २ कुछ पैसे फेंकते थे, ऐसे फेंकने से क्या होता है, वह कजूस क्या बखेर करेगा इत्यादि, देखिये ! यह कैसी बात है - एक तो रुपये गमाना और दुसरे बदनामी कराना, इस लिये वखेर की प्रथा को अवश्य बन्द कर देना चाहिये, हा यदि सेठजी के हृदय में ऐसी ही उदारता हो तथा द्रव्य खर्चकर नामवरी ही लेना चाहते हों तो लूले और लॅगडों के लिये सदावर्त्त आदि जारी कर देना चाहिये ।
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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