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________________ चतुर्थ अध्याय ॥ २१५ आलू - ठंढा, मीठा, रूक्ष, मूत्र तथा मल को रोकनेवाला, पोषणकारक, बलवर्धक, स्तन के दूध तथा वीर्य को बढानेवाला, रक्तपित्त का नाशक और कुछ वायुकर्त्ता है परन्तु अधिक घी के साथ खाने से वायु नही करता हैं, अगार में भून कर अथवा घी में तलकर छोटे बालकों को खिलाने से उन का अच्छी तरह पोषण करता है तथा हाडों को बढाता है | ✓ - रतालू तथा सकरकन्द —— पुष्टिकारक, मीठा, मलको रोकने वाला और कफकारी है ॥ मूली-भारी मल को रोकने वाली, तीखी, उष्णताकारक, अभिदीपक और रुचिकर है, हरस, गुल्म, श्वास, कफ, ज्वर, वायु और नाक के रोगों में हितकारी है, कच्ची मूली तीनो प्रकृति वाले लोगों के लिये हितकारक है, पकी हुई तथा बड़ी मूलियों को मूले कहते हैं - वे (मूले) रूक्ष, अति गर्म और कुपथ्य हैं, मूले के ऊपर के छिलके भारी और तीखे होते है इसलिये वे अच्छे नहीं है, मूले को गर्म जल में अच्छी तरह से सिजा कर पीछे अधिक घी या तेल में तल कर खाने से वह तीनों प्रकृति वालों के लिये अनुकूल हो जाता है | गाजर-मीठी, रुचिकर तथा ग्राही है, खुजली और रक्तविकार के रोगों में हानि करती है, परन्तु अन्य बहुत से रोगों में हितकारी है, यह वीर्य को विगाडती है इसलिये इस को समझदार लोग नहीं खोते हैं || काँदा - बलवर्धक, तीखा, भारी, मीठा, रुचिकर, वीर्यवर्धक तथा कफ और नींद को पैदा करने वाला है, क्षय, क्षीणता, रक्तपित्त, वमन, विचिका (हैजा ), कृमि, अरुचि, पसीना, शोथ और खून के सब रोगों में हितकारी है, इस का शाक मुरब्बा और पाक आदि भी बनता है || राधने की युक्ति और दूसरे पदार्थों के सयोग से शाक तरकारी के गुणों में भी अन्तर हो जाता है अर्थात् जो शाक वायुकर्त्ता होता है वह भी बहुत घी तथा तेल के सयोग से बनाने पर वायुकर्त्ता नहीं रहता है, इसी प्रकार सूरण और आलू आदि जो शाक पचने में भारी है उस को पहिले खूब जल में सिजाकर फिर घी या तेल में छौका जावे तो वह हानि नहीं करता है क्योंकि ऐसा करने से उस का भारीपन नष्ट हो जाता है । १- इसीलिये - जैन शास्त्रों में जगह २ कन्द के खाने का निषेध किया है तथा अन्यत्र भी इस का सर्वत्र निषेध ही किया है, इस लिये कन्द का कोई भी शाक दवा के सिवाय जैनी तथा वैष्णवों को भी नहीं खाना चाहिये, क्योंकि - जैन सूत्रों में वन्द को 'अनन्तकाय, के नाम से बतलाकर इस के खाने का निषेध किया है तथा वैष्णव और शैव सम्प्रदाय वालों के धर्मप्रन्थों में भी कन्दमूल का खाना निषिद्ध है, इस का प्रमाण सात व्यसन तथा रात्रिभोजन के वर्णन में आगे लिखेंगे ॥
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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