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________________ २२६ बैनसम्प्रवामक्षिक्षा ॥ फ्यप ही है, इस लिये मुझको भी उरित है कि मैं भी रभ से उतर फर शम छोर पर और पवन को उतार कर इस के साथ युद्ध फर इसे जी तूं, इस प्रकार मन में विचार फर रथ से उतर पड़ा और श्रम तथा पत्र का त्याग फर सिंह को तरसे उसयारा, भम सिंह ननदीक आया सब दोनों हाथों से उस के दोनों ओठा को पका फर जी बम की तरह पीर फर नमीन पर गिरा दिया परन्तु इतना करने पर भी सिंह का बीच शरीर से न निकला प राना के सारभि ने सिंह से कहा कि-हे सिंह! वैसे तू मग राज है उसी प्रकार शुस को मारनेवाला यह नरराब है, मह फोई साधारण पुरुप नहीं । इस तिर्य भम तू भपनी वीरता फे साहस फो छोड़ दे, सारभिरे इस चरन को सुन फार सिंहफे माण पते गये। पर्तमान समय में नो राजा मादि लोग सिंह का शिकार करते हैं ये भी भनेक इस बल फर तथा भपनी रक्षा का पूरा प्रपंप पर छिपकर सिफार करसे दें, पिना समरे तो सिंह की शिकार करना पड़ रहा मिन्सु समक्ष में उसकार पर सम्पार या गोठीक पानेगाडे भी भार्यापर्व भर में दो चार ही नरेश होंगे। ___ पर्ममामा का सिवान्स है फि वो राने महारामे मनाम पशुमो की हत्या करते हैं उन क राग्य में माया दुर्मिक्ष होता है, रोग होता है तथा पे सन्तानरहित दावे है, इस्पादि भनेक कष्ट इस भव में ही उन फो माप्त होते है भौर पर मप में मरफ में जाना पड़ता है, विपार करने की पात है फि-मदि हमको दूसरा कोई मारे तो हमारे चीर को कैसी तकसीफ मासम होती है, उसी प्रकार हग भी जर फिसी मामी को मारे तो उस को भी पैसा दी मुास होता है, इससिये राजे महारामों का यदी मुस्म धर्म है कि भपमे २ राग्य में प्राणियों को मारना मंद कर दें भीर स्वयं भी उस व्यसन फो छोर पर पुश्मस् सप माणियो की सन मन पन से रक्षा फरें, इस संसार में जो पुरुष इन परे सास न्यसमों से परे हुए हैं उन को पन्य है भीर मनुस्मनन्म का पाना भी उन्ही फा सफत समझना पाहिये, भीर भी पहुत से हानिकारक छोटे २ म्पसन इन्दी सात म्पसनों के भन्सर्गस, वैसे-१-कोरियों से तो नुप को न सेठना परन्तु भनेक मफार फा फाटफा (ची माविका सस) फरना, २-मई पीना में पुरानी और मम्मी पीमो फारेचना, फम पोसना, दगाबानी करना, ठगाई फरना (यह सम चोरी ही है)। ३-भनेक मनर का नशा परना, १-पर का भसमाप पारे पिकही जापे परना मोस गँगाकर नित्य मिर्मा लाये पिना नहीं रहना, ५-रामि को पिना साये न फा म पाना, ६-भर उपर की जुगसी परना, ७-सस्य म पोसना भादि, इस प्रकार भनेर तरह के मरान, मिन के फन्दे में पर फर उन से पिछाना फठिन दो भासा दे, जेसा कि किसी कवि ने फराकि - कण मन्य भपीग रस । वस्कर ने जूभा ॥ पर पर रीझी
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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