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चतुर्थ अध्याय ॥
४२३ चट्टे और धब्बे पडे तो समझ लेना चाहिये कि इस को ताज़ी और अच्छी खुराक नहीं मिली है इस लिये खून विगड गया है, इसी तरह से एक प्रकार के चट्टे और विस्फोटक हों तो समझ लेना चाहिये कि इस को गर्मी का रोग है, हैजे की निकृष्ट बीमारी में त्वचा तथा नखों का रंग आसमानी और काला पड़ जाता है और यही उस के मरने की निशानी है इस तरह त्वचा के द्वारा बहुत से रोगों की परीक्षा होती है। ___ मूत्रपरीक्षा-नीरोग आदमी के मूत्र का रंग ठीक सूखी हुई घास के रंग के समान होता है, अर्थात् जिस तरह सूखी हुई घास न तो नीली, न पीली, न लाल, न काली और न सफेद रंग की होती है किन्तु उस में इन सब रगों की छाया झलकती रहती है, वस उसी प्रकार का रंग नीरोग आदमी के मूत्र का समझना चाहिये, मूत्र के द्वारा भी बहुत से रोगों की परीक्षा हो सकती है, क्योकि मूत्र खून में से छूट कर निकला हुआ निरुपयोगी (विना उपयोग का) प्रवाही (बहनेवाला) पदार्थ है, क्योंकि खून को शुद्ध करने के लिये मूत्राशय मूत्र को खून में से खीच लेता है, परन्तु जब शरीर में कोई रोग होता है तब उस रोग के कारण खून का कुछ उपयोगी भाग भी मूत्र में जाता है इस लिये मूत्र के द्वारा भी बहुत से रोगों की परीक्षा हो सकती है, इस मूत्रपरीक्षा के विषय में हम यहा पर योगचिन्तामणिशास्त्र से तथा डाक्टरी ग्रन्थों से डाक्टरों की अनुभव की हुई विशेष बातों के विवरणके द्वारा अष्टविध (आठ प्रकार की) परीक्षा लिखते हैं:
१-वायुदोषवाले रोगी का मूत्र बहुत उतरता है और वह बादल के रंग के समान होता है।
२-पित्तदोषवाले रोगी का मूत्र कसूभे के समान लाल, अथवा केसूले के फूल के रग के समान पीला, गर्म, तेल के समान होता है तथा थोडा उतरता है ।
३-कफ के रोगी का मूत्र तालाब के पानी के समान ठंढा, सफेद, फेनवाला तथा चिकना होता है।
४-मिले हुए दोपौवाला मूत्र मिलेहुए रग का होता है। ५-सन्निपात रोग में मूत्र का रंग काला होता है। ६-खून के कोपवाला मूत्र चिकना गर्म और लाल होता है ।
७-वातपित्त के दोपवाला मूत्र गहरा लाल अथवा किरमची रंग का तथा गर्म ।। होता है।
१-जैसे वातपित्त के रोग मे वादल के रग के ममान तथा लाल वा पीला होता है, वातकफ के रोग में वादल के रग के समान तथा सफेद होता है तथा पित्तकफ के रोग में लाल वा पीला तया सफेद रंग का होता है, इस का वर्णन न० ७ से ८ तक आगे किया भी गया है ।