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________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ६११ राजा के हृदय में जो शोक ने बसेरा किया भला उस का तो कहना ही क्या है | एकमात्र आँखों के तारे राजकुमार की यह दशा होने पर भला राजवंश में अन्न जल किस को अच्छा लगता है और जब राजवंश ही निराहार होकर सन्तप्त हो रहा है तब नगरीवासी खामिभक्त प्रजाजन अपनी उदरदरी को कैसे भर सकते है ? निदान भूखे प्यासे और शोक से सन्तप्त सब ही लोग इधर उधर दौड़ने लगे, यन्त्र मन्त्रादिवेत्ता अनेक जन ढूँढ २ कर उपचारादि के लिये बुलाये गये परन्तु कुछ न हुआ, होता कैसे कही मायिक ( माया से बने हुए ) सर्प का भी उपचार हो सकता है ? लाचार होकर राजा आदि सर्व परिवारजन तथा नागरिक जन निराश हो गये और कुमार को मरा हुआ जान कर श्मशानभूमि में जलाने के लिये लेकर प्रस्थित ( रवाना ) हुए, जब कुमार की लाश को लिये हुए राजा आदि सब लोग नगर के द्वार पर पहुँचे उस समय रत्नप्रभ सूरि जी का शिष्य आकर उन से बोला कि - "यदि तुम हमारे गुरुजी का कहना स्वीकार करो तो वे बोले कि - " यह आज्ञा होगी वह दर्दी सब कुछ इस मृत कुमार को जीवित कर सकते है" यह सुन कर वे सब लोग कुमार किसी प्रकार जीवित हो जाना चाहिये, तुम्हारे गुरु की जो कुछ अवश्य ही हम सब लोगों के शिरोधार्य होगी" ( सत्य है - गरजी और स्वीकार करते हैं ) निदान शिष्य के कथनानुसार राजा आदि सब लोग कुमार की लाश को गुरुजी के पास ले गये, उस समय सूरिजी ने राजा से कहा कि- “यदि तुम अपने कुटुम्बसहित मिथ्यात्व धर्म का त्याग कर सर्वज्ञ के कहे हुए दयामूल धर्म का ग्रहण करो तो हम कुमार को जीवित कर सकते है" राजा आदि सब लोगों ने गुरु जी का कहना हर्पपूर्वक स्वीकार कर लिया, फिर क्या था वही पोनिया सर्प आया और कुमार का सम्पूर्ण विप खींच कर चला गया, कुमार आलस्य में भरा हुआ तथा जॅभाइयों को लेता हुआ निद्रा से उठे हुए पुरुष के समान उठ खडा हुआ और चारों ओर देख कर कहने लगा कि- " - " तुम सब लोग मुझे इस जङ्गल में क्यो लाये" कुमार के इस वचन को सुन कर राजा आदि सब लोगों के नेत्रो में प्रेमाश्रु ( प्रेम ऑसू ) वहने लगे आनन्द की तरङ्गे हृदय में उमड़ने लगी, उपलदे राजा ने इस कौतुक आनन्दित होकर तथा सूरि जी को परम चमत्कारी महात्मा जान कर अपने मुकुट को उतार कर उन के चरणों में रख दिया और कहा कि - " हे परम गुरो । यह सर्व राज्य, कोठार, भण्डार, बरु मेरे प्राण तक सब कुछ आपके अर्पण है, दयानिधे ! इस मेरे सर्व राज्य को लेकर मुझे अपने ऋण से मुक्त कीजिये" राजा के ऐसे विनीत ( विनययुक्त ) वचनों को सुन कर सूरि जी बोले कि – “हे नरेन्द्र ! जब हम ने अपने पिता के ही राज्य को छोड दिया तो अब हम नरकादि दुःखप्रद राज्य को लेकर क्या करेंगे 2 इसलिये हम को राज्य से कुछ भी प्रयोजन नहीं है किन्तु हमें प्रयोजन केवल श्रीवीतराग भगवान् के के से तथा हर्ष और विस्मित और
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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