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________________ पश्चम अध्याय ॥ ६५३ कर आचार्य महाराज ने लाखन सिंह को दयामूल जैन धर्म का अङ्गीकार करवाया और उस का ओसवाल वंश तथा लोढा गोत्र स्थापित किया। _ महाराज के कथनानुसार लाखन सिंह के पुनः पुत्र उत्पन्न हुआ और उस का परिवार बहुत बढ़ा अर्थात् दिल्ली, अजमेर नागौर और जोधपुर आदि स्थानों में उस का परिवार फैल कर आवाद हुआ। लोढों के गोत्र में दो प्रकार की मातायें मानी गई अर्थात् एक तो बड़ की पाटी बना कर उस पाटी को ही माता समझ कर पूजने लगे और कई एक बड़लाई माता को पूजने लगे। लोढा गोत्र में पुनः निम्नलिखित खापें हुई:१-टोडर मलोत । २-छज मलोत । ३-रतन पालोत । ४-भाव सिन्धोत ॥ सूचना-ऊपर लिख चुके हैं कि-लोढों की कुलदेवी बड़लाई माता मानी गई है, अतः जो लोढे नागौर में रहते है उन की स्त्रियों के लिये तो यह बहुत ही आवश्यक बात मानी गई है कि-सन्तान के उत्पन्न होने के पीछे वे जा कर पहिले माता के दर्शन करे फिर कहीं दूसरी जगह को जाने के लिये घर से निकलें, इन के सिवाय जो लोढे बाहर रहते हैं वे तो बड़ी लड़की का और प्रत्येक लड़के का झडूला वहाँ जा कर उतारते हैं तथा काली बकरी और भैंस को न तो खरीदते है और न घर में रखते हैं, ये लोग चाक को भी व्याह में नहीं पूजते हैं, जोधपुर नगर में लोढों को राव का खिताव है, कुछ वर्षों से इन लोगों में से कुछ लोग दयामूल जैन धर्म को छोड़ कर वैष्णव भी हो गये हैं। ओसवालों के १४४४ गोत्र कहे जाने का कारण॥ लगभग १६०० सवत् में इस बात को जानने के लिये कि ओसवालों के गोत्रों की कितनी सख्या है एक सेवक ( भोजक ) ने परिश्रम करना शुरू किया तथा बहुत अर्से म उसने १४४३ ( एक हजार चार सौ तेतालीस ) गोत्रों को लिख कर संग्रहीत किया. उस समय उस ने अपनी समझ के अनुसार यह भी विचार लिया कि अब कोई भी गोत्र बाकी नहीं रहा है, ऐसा विचार कर बह अपने घर लौट आया और देशाटन का सब हाल अपनी स्त्री से कह सुनाया, तब उस की स्त्री ने कहा कि-"तुम ने मेरे पीहरवाले ओस. वालों की खाप लिखी है" यह सुन कर सेवक ने चौंक कर अपनी स्त्री से पूछा किलोगों की क्या खाप है" स्त्री ने कहा कि "डोसी" है, यह सुन कर सेवक ने कहा १-टोडर मल और छजमल को दिल्ली के वादशाह ने शाह की पदवी दी थी अत. सव ही लोढे शाह कहलाते हैं।
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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