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________________ ४२१ । चतुर्थ अध्याय ॥ निस्तेज, तन्द्रायुक्त, कृष्ण और जड़ होते है, त्रिदोष (सन्निपात ) के नेत्र भयंकर, लाल, कुछ काले और मिचे हुए होते है। ___ आकृतिपरीक्षा-आकृति (चेहरा) के देखने से भी बहुत से रोगों की परीक्षा हो सकती है, प्रातःकाल में रोगी की आकृति तेजरहित विचित्र और झाकने से काली दीखती हो तो वादी का रोग समझना चाहिये, यदि आकृति पीली मन्द और शोथयुक्त दीखे तो पित्त का रोग समझना चाहिये, यदि आकृति मन्द और तेलिया (तेल के समान चिकनी ) दीखे तो कफ का रोग समझना चाहिये, खाभाविक नीरोगता की आकृति शान्त स्थिर और सुखयुक्त होती है, परन्तु जब रोग होता है तब रोग से आकृति फिर (वदल ) जाती है तथा उस का खरूप तरह २ का दीखता है, रात दिन के अभ्यासी वैद्य आकृति को देख कर ही रोग को पहिचान सकते है, परन्तु प्रत्येक वैद्य को इस (आकृति) के द्वारा रोग की पहिचान नहीं हो सकती है। आकृति की व्यवस्था का वर्णन सक्षेप से इस प्रकार है:१-चिन्तायुक्त आकृति-सख्त बुखार में, बड़े भयकर रोगो की प्रारम्भदशा में, हिचकी तथा खैचातान के रोगों में, दम तथा श्वास के रोग में, कलेजे और फेफसे के रोग में, इत्यादि कई एक रोगों में आकृति चिन्तायुक्त अथवा चिन्तातुर रहती है। २-फीकी आकृति-बहुत खून के जाने से, जीर्ण ज्वर से, तिल्ली की वीमारी से, बहुत निर्बलता से, बहुत चिन्ता से, भय से तथा भर्त्सना से, इत्यादि कई कारणों से खून के भीतरी लाल रजःकणो के कम हो जाने से आकृति फीकी हो जाती है, इसी प्रकार ऋतुधर्म में जब स्त्री का अधिक खून जाता है अथवा जन्म से ही जो शक्तिहीन वाधेवाली स्त्री होती है उस का वालक वारबार दूध पीकर उस के खून को कम कर देता है और उस को पुष्टिकारक भोजन पूर्णतया नहीं मिलता है तो स्त्रियों की भी आकृति फीकी हो जाती है । ३-लाल आकृति-सख्त बुखार में, मगज़ के शोथ में तथा लू लगने पर लाल आकृति हो जाती है, अर्थात् आखें खून के समान लाल हो जाती हैं और गालों १-जड अर्थात् क्रियारहित ॥ २-इसी विपय का वर्णन किसी विद्वान् ने दोहों में किया है, जो कि इस प्रकार है-वातनेत्र रूखे रहे, धूम्रज रग विकार ॥ समकें नहि चञ्चल खुले, काले रग विकार ॥ १ ॥ पित्तनेत्र पीले रहें, नीले लाल तपह ॥ तप्त धूप नहिं दृष्टि दिक, लक्षण ताके येह ॥ २॥ कफज नेत्र ज्योतीरहित, चिट्टे जलभर ताहि ॥ भारे बहुता हि प्रभा, मन्द दृष्टि दरसाहि ॥३॥ काले खुले जु मोह सों, व्याकुल अरु विकराल ॥ रूखे कवहूँ लाल हो, त्रैदोपज समभाल ॥ ४ ॥ तीन तीन दोपहि जहाँ, त्रैदोपज सो मान ॥ दो २ दोष लखे जहाँ, द्वन्द्वज तहाँ पिछान ॥ ५ ॥ इन दोहों का अर्थ सरल ही है इस लिये नहीं लिखते हैं॥
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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