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________________ मम विशेषष्ट सेवा है। जैसे किसी न किसी से किसी स्थान पर सावा ससने पर निपप फिया रिमैंन इस को अक्षर स्पान पर देसा पा पापी पुस इस्पादि प्रत्पमिशान की विशेष रष्ट पारे। जब तुम मबार स संसार प्रियार । म इम्प रे प्रमादि मानते हो तो पर्याय में सादि सान्न भोमा बर-माप्रासादादि पाहबसाया गया हैमा जा से अनादिमों नहीं। मैन शास्त्र ही इन गे को सादि साम्त पावर, at फिर इम पासावादि को भार से मनाारसमाए देस माने-तपा या मासा दादि मा म पनाम अनादिगो पात पिस पाप से मार है-मैसेप्रबार से मनुष्य भन,दि माते । वदत् । उन पीति निपाएं मी प्रसार से मनादिर।
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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