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________________ चतुर्थ अध्याय ॥ २१३ कोला, पेठा - इस की दो किस्मे है- एक तो पीला और लाल होता है उस को कोला कहते है, उस का शाक बनाया जाता है और दूसरा सफेद होता है उस को पेठा, कहते है, उस का मुरब्बा बनता है, यह बहुत मीठा, ठंढा, रुचिकर, तृप्तिकर, पुष्टिकारक और वीर्यवर्धक है, भ्रान्ति और थकावट को दूर करता है, पित्त, रक्तविकार, दाह और वायु को मिटाता है, छोटा कोला ठढा होता है इस लिये वह पित्त को शान्त करता है, मध्यम कद का कोला कफ करता है और बड़े कद का कोला बहुत ठंढा नहीं है, मीठा है, खारवाला, अग्निदीपक, हलका, मूत्राशय का शोधक और पित्त के रोगों को मिटानेबाली है ॥ बैंगन - बैगन की दो किस्में हैं - काला और सफेद, इन में से काला बैगन नींद लाने वाला, रुचिकारक, भारी तथा पौष्टिक है, और सफेद बैगन दाह तथा चमड़ी के रोग को उत्पन्न करता है, सामान्यतया दोनो प्रकार के बैंगन गर्म, वायुहर तथा पाचक होते है, एक दूसरी तरह का भी नीबू जैसा बैगन होता है तथा उसे गोल काचर कहते है, वह कफ तथा वायु की प्रकृतिवाले के लिये अच्छा है तथा खुजली, वातरक्त, ज्वर, कामला और अरुचि रोगवाले के लिये भी हितकारी है, परंतु जैनसूत्रों में बैगन को बहुत सूक्ष्म बीज होने से अभक्ष्य लिखा है ॥ घिया तोरई - खादिष्ट, मीठी, वात पित्त को मिटानेवाली और ज्वर के रोगी के लिये भी अच्छी है ॥ तोरी - वातल, ठढी और मीठी है, कफ करती है, परन्तु पित्त, दमा, श्वास, कास, ज्वर और कृमिरोगो में हितकारक है | करेला - कडुआ, गर्म, रुचिकारक, हलका और अग्निदीपक है, यदि यह परिमित ( परिमाण से ) खाया जावे तो सब प्रकृतिवालो के लिये अनुकूल है, अरुचि, कृमि और ज्वर आदि रोगो में भी पथ्य है ॥ ककड़ी - इस की बहुत सी किस्में है - उन में से खीरी नाम की जो ककडी है वह कच्ची ठढी, रूक्ष, दस्त को रोकनेवाली, मीठी, भारी, रुचिकर और पित्तनाशक है, तथा १ - इसे पूर्व मे काशीफल, सीताफल, गंगाफल और लोका भी कहते हैं ॥ २ - इस को कुम्हेडा भी कहते हैं ॥ ३- इसका आगरे में पेठाभी बहुत उमदा वनता है जिसको मुर्शिदावादवाले हेसमी कहते है और व्यवाह आदि मे बहुत उमदा वनायी जाती है ॥ ४-किसी अनुभवी वैद्य ने कहा है कि - "बैंगन कोमल पथ्य है, कोला कच्चा जहर है, दरडें कच्ची और पक्की सदा पथ्य हैं, वोर (वेर) कच्चा पक्का सदा कुपथ्य है" ॥ ५- इस को आनन्द श्रावक ने खुला रक्खाया, यह पहिले कह चुके हैं, यह धर्मात्मा श्रावक महावीर स्वामी के समय में हुआ है, (देखो - उपासक दशा सूत्र ) ॥
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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