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________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ५३३ चमड़ीपर होती है, इस रोग में यह भी होता है कि आसपास चेप के लगने से एक में से दो चार चाँदिया पड़ जाती है, चॉदी गोल आकार ( शकल) की तथा कुछ गहरी होती है, उस के नीचे का तथा किनारे का भाग नरम होता है, उस की सपाटी के ऊपर सफेद मरा हुआ (निर्जीव ) मास होता है तथा उस में से पुष्कल (बहुतसी) रसी निकलती है। ____ कभी २ ऐसा भी होता है कि-चमडी फूल के ऊपर चढ़ी रहती है और फूलपर सूजन के हो जाने से चमडी नीचे को नहीं उतर सकती है परन्तु कई वार चमड़ी के नीचे को उतर जाने के पीछे चॉदी की रसी भीतर रह जाती है इस लिये भीतर का भाग तथा चमड़ी सूज जाती है और चमड़ी सुपारी के ऊपर नहीं चढती है, ऐसे समय में भीतर की चॉदी का जो कुछ हाल होता है उस को नजर से नहीं देख सकते हैं। ___ कभी २ सुपारी के भीतर मूत्रमार्ग में (पेशाब के रास्ते में ) चॉदी पड जाती है तथा कभी २ यह चॉदी जब जोर में होती है', उस समय आसपास की जगह खजती जाती हैं तथा वह फैलती जाती है, उस को प्रसरयुक्त टाकी (फाजेडीना ) कहते है, इस चॉदी के साथ बदगाठ भी होती है तथा वह पककर फूटती है, जिस जगह बद होती है उस जगह गड्डा पड़ जाता है और वह जल्दी अच्छा भी नहीं होता है', कभी २ इस चॉदी का इतना जोर होता है कि इन्द्रिय का बहुत सा भाग एका एक (अचानक ) सड़ कर गिर जाता है, इस प्रकार कभी २ तो सम्पूर्ण इन्द्रिय का ही नाश हो जाता है, उस के साथ रोगी को ज्वर भी आ जाता है तथा बहुत दिनोंतक उसे अतिकष्ट उठाना पड़ता है, इस को सडनेवाली चॉदी (स्लफीग ) कहते है, ऐसी प्रसरयुक्त और सड़नेवाली टाकी प्रायः निर्वल (कमजोर) और दुःखप्रद (दुःख देनीवाली) स्थिति ( हालत ) के मनुष्य के होती है। ___ कभी २ ऐसा भी होता है कि-नरम अथवा सादी चाँदी मूल से तो नरम होती है परन्तु पीछे कहीं २ किन्हीं २ दूसरे क्षोभक (क्षोभ अर्थात् जोश दिलानेवाले) कारणो से कठिन हो जाती है तथा कहीं २ नरम और कठिन दोनो प्रकार की चॉदी साथ में ही एक ही स्थान में होती है, किन्ही पुरुषों के इन्द्रिय के ऊपर सादी फुसी और चॉदी होती १-अर्थात् फल का भाग खुला रह जाता है । २-अर्थात् तीक्ष्ण वा वेगयुक्त होती है ॥ ३-खजती जाती है अर्थात् निकम्मी पडती जाती है ॥ ४-प्रसरयुक्त अर्थात् फैलनेवाली ॥ ५-अर्थात् वह गदा वहुत कठिनता से बहुत समय में तथा अनेक यत्नों के करनेपर मिटता है ॥ ६-नरम अर्थात् मन्द वेगवाली ॥ ७-क्षोभक कारणों से अर्थात् उस में वेग वा तीक्ष्णता को उत्पन्न करनेवाले कारणों से ॥
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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