________________
चतुर्थ अध्याय ॥
३५१ वयंवर की रीति से विवाह करने में यह होता था कि-निजकुटुम्ब से भिन्न (किन्तु देश की प्रथा के अनुसार खजातीय ) जन देश देशान्तरों से आते थे और उन सब के गुण आदि का श्रवण कर कन्या ऊपर लिखे अनुसार सब बातों में अपने समान पति का स्वयं (खुद) वरण (खीकार ) कर लेती थी, अब पाठकगण सोच सकते है कि यह (स्वयवर की) रीति न केवल यही बतलाती है कि-निज कुटुम्ब में विवाह नहीं होना चाहिये किन्तु यह रीति दुहिता शब्द के अर्थ को और भी पुष्ट करती है (कि कन्या का स्वग्राम वा स्वनगर आदि में विवाह नहीं होना चाहिये ) क्योकि यदि निज कुटुम्ब में विवाह करना अभीष्ट वा लोकसिद्ध होता अथवा स्वग्राम वा खनगरादि में ही विवाह करना योग्य होता तो वयवर की रचना करना ही व्यर्थ था, क्योकि वह (निज कुटुम्ब में वा स्वग्रामादि में ) विवाह तो विना ही खयवर रचना के कर दिया जा सकता था, क्योंकि अपने कुटुम्ब के अथवा खग्रामादि के सब पुरुपो के गुण आदि प्रायः सब को विदित ही होते हैं, अब खयवर के सिवाय जो दूसरी और तीसरी रीति लिखी है उस का भी प्रयोजन वही है कि जो ऊपर लिख चुके है, क्योंकि ये दोनो रीतिया स्वयंवर नही तो उस का रूपान्तर वा उसी के कार्य को सिद्ध करनेवाली कही जा सकती है, इन में विशेषता केवल यही है कि पति का वरण कन्या खय नहीं करती थी किन्तु माता पिता के द्वारा तथा ज्योतिपी आदि के द्वारा पति का वरण कराया जाता था, परन्तु तात्पर्य वही था कि-निज कुटुम्ब में तथा यथासम्भव खग्रामादि में कन्या का विवाह न हो।
ऊपर लिखे अनुसार शास्त्रीय सिद्धान्त से तथा लौकिक कारणों से निजकुटुम्ब में विवाह करना निषिद्ध है अतः निर्वलता आदि दोपों के हेतु इस का सर्वथा परित्याग करना चाहिये ॥
३-बालकपन में विवाह-प्यारे सुजनो ! आप को विदित ही है कि इस वर्तमान समय में हमारे देश में ज्वर, शीतला, विधूचिका (हैजा) और प्लेग आदि अनेक रोगों की अत्यन्त ही अधिकता है कि जिन से इस अभागे भारत की यह शोचनीय कुदशा हो रही है जिस का स्मरण कर अश्रुधारा बहने लगती है और दुःख विसराया भी नही जाता है, परन्तु इन रोगों से भी बढ़ कर एक अन्य भी महान् भयकर रोग ने इस जीर्ण भारत को वर दबाया है, जिस को देख व सुनकर वज्रहृदय भी दीर्ण होता है, तिस पर भी आश्चर्य तो यह है कि उस महा भयकर रोग के पजे से शायद कोई ही भारतवासी रिहाई पा चुका होगा, यह ऐसा भयकर रोग है कि-ज्यों ही वह (रोग) शिर पर चढ़ा त्योंही (थोड़े ही दिनों में ) वह इस प्रकार योथा और निकम्मा कर देता है कि जिस प्रकार गेहूँ आदि अन्न में धुन लगने से उस का सत निकल कर उस की अत्यन्त कुदशा हो जाती है कि जिस से वह किसी काम का नहीं रहता है, फिर देखो।