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________________ चतुर्थ अध्याय ॥ २२७ शीतकाल, अग्निमान्य (अमि की मन्दता), कफसम्बन्धी रोग, मलमूत्र का साफ न उतरना, जठराग्नि के विकार, उदररोग, गुल्म और हरस, इन रोगों में छाछ बहुत ही लाभदायक है। ___ अकेली छाछ का ही ऐसा प्रयोग है कि उस से असाध्य संग्रहणी तथा हरस जैसे भयंकर रोग भी अच्छे हो जाते है, परन्तु पूर्ण विद्वान् वैद्य की सम्मति से इन रोगों में छाछ लेने की युक्ति को समझ कर उस का उपयोग करना चाहिये, क्योंकि अम्लपित्त और संग्रहणी ये दोनों रोग प्रायः समान ही मालूम पड़ते हैं तथा इन दोनों को अलग २ पहिचान लेना मूर्ख वैद्य को तो क्या किन्तु साधारण शास्त्रज्ञानवाले चैद्य को भी कठिन पडता है, तात्पर्य यह है कि इन दोनों की ठीक तौर से परीक्षा तो पूर्ण वैद्य ही कर सकता है, इस लिये पूर्ण वैद्य के द्वारा रोग की परीक्षा होकर यदि सग्रहणी का रोग सिद्ध हो जावे तो छाछ को पीना चाहिये, परन्तु यदि अम्लपित्त रोग का निश्चय हो तो छाछ को कदापि नहीं पीना चाहिये, क्योंकि सग्रहणी रोग में छाछ अमृत के तुल्य और अम्ल- . पित्त रोग में विष के तुल्य असर करती है ॥ तक्रसेवननिषेध-जिस के चोट लगी हो उसे, घाववाले को, मल से उत्पन्न हुए शोथ रोगवाले को, श्वास के रोगी को, जिस का शरीर सूख कर दुर्वल हो गया हो उस को, मूर्छा भ्रम उन्माद और प्यास के रोगी को, रक्तपित्तवाले को, राजयक्ष्मा तथा उरःक्षत के रोगी को, तरुण ज्वर और सन्निपात ज्वरवाले को तथा वैशाख जेठ आश्विन और कार्तिक मास में छाछ नहीं पीनी चाहिये, क्योंकि उक्त रोगों में छाछ के पीने से दूसरे अनेक रोगों के उत्पन्न होने का सभव होता है तथा उक्त मासों में भी छाछ के पीने से रोगोत्पत्ति की सम्भावना रहती है ।। १-प्रिय पाठकगण ! वैद्य की पूरी बुद्धिमत्ता रोग की पूरी परीक्षा कर लेने में ही जानी जाती है, परन्तु वर्तमान समय में उदरार्थी अपठित तथा अर्धदग्व मूर्ख वैद्य बहुत से देखे जाते हैं, ऐसे लोग रोग की परीक्षा कभी नहीं कर सकते हैं, ऐसे लोग तो प्रतिदिन के अभ्यास से केवल दो चार ही रोगों को तथा उन की ओषधि को जाना करते हैं, इसलिये समान लक्षणवाले अथवा कठिन रोगों का अवसर आ पड़ने पर इन लोगों से अनर्थ के सिवाय और कुछ भी नहीं वन पडता है, देखो । ऊपर लिखे अनुसार अम्लपित्त और सग्रहणी प्राय समान लक्षणवाले रोग हैं, अव विचारिये कि-सग्रहणी के लिये तो छाछ अद्वितीय ओषधि है और अम्लपित्त पर वह घोर विष के तुल्य है, यदि लक्षणो का ठीक निश्चय न कर अम्लपित्त पर छाछ दे दी जावे तो रोगी की क्या दशा होगी, इसी प्रकार से समान लक्षणवाले बहुत से रोग हैं जिनका वर्णन प्रन्ध के विस्तार के भय से नहीं करना चाहते हैं और न उन के वर्णन का यहा प्रसग ही है, केवल छाछ के प्रसग से यह एक उदाहरण पाठकों को बतलाया है, इस लिये प्रत्येक मनुष्य को उचित है कि-प्रथम योग्य उपायों से वैद्य की पूरी परीक्षा करके फिर उससे रोग की परीक्षा कराधे ॥ २-यह तक का सक्षेप से वर्णन किया गया, इस का विशेष वर्णन दूसरे वैद्यक प्रन्यो मे देखना चाहिये।
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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