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________________ चतुर्थ अध्याय ॥ २७९ यह मान भी लिया जाये कि वहा सदा ही से बर्फ था तथा उसी में हाथी भी रहते थे तो यह प्रश्न उत्पन्न होगा कि बर्फ में हाथी क्या खाते थे । क्योंकि बर्फ को तो खा ही नहीं सकते है और न बर्फ पर उन के खाने योग्य दूसरी कोई वस्तु ही हो सकती है ! इस का कुछ भी जबाब नही हो सकता है, इस से स्पष्ट है कि वह स्थान किसी समय में गर्म था तथा हाथियों के रहनेलायक वनरूप में था, अब भी शीतोष्ण देशों में भी सूर्य के समीप होने से अथवा दूर होने और ठढ पडती है, इसी लिये ऋतुपरिवर्तन से वर्ष के ये दो अयन गिने जाते है, उत्तरायण उष्णकाल को तथा कहते है | से मध्य हिन्दुस्तान के समन्यूनाधिक रूप से गर्मी उत्तरायण और दक्षिणायन, दक्षिणायन शीतकाल को पृथिवी के गोले का एक नाम नियत कर उस के बीच में पूर्व पश्चिमसम्बन्धिनी एक लकीर की कल्पना कर उस का नाम पश्चिमीय विद्वानो ने विषुववृत्त रक्खा है, इसी लकीर के उत्तर की तरफ के सूर्य छः महीने तक उष्ण कटिबन्ध में फिरता है तथा छः महीने तक इस के दक्षिण की तरफ के उष्ण कटिबन्ध में फिरता है, जब सूर्य उत्तर की १ - सर्वज्ञ कथित जैन सिद्धान्त मे पृथिवी का वर्णन इस प्रकार है कि-पृथिवी गोल याल की शकल मे है, उस के चारों तरफ असली दरियाव खाई के समान है तथा जावूद्वीप बीच में है, जिस का विस्तार लाख योजन का है इत्यादि, परन्तु पश्चिमीय विद्वानोंने गेंद या नारगी के समान पृथिवी की गोलाई मानी है, पृथिवी के विस्तार को उन्हों ने सिर्फ पचीस हजार मील के घेरे मे माना है, उन का कथन है कि- तमाम पृथिवी की परिक्रमा ८२ दिन में रेल या वोट के द्वारा दे सकते हैं, उन्हों ने जो कुछ देख कर या दर्यात्फ कर कथन किया या माना है वह शायद कथञ्चित् सत्य हो परन्तु हमारी समझ में यह बात नहीं आती है। किन्तु हमारी समझ में तो यह वात आई हुई है कि - पृथिवी बहुत लम्बी चौडी है, सगर चक्रवर्ती के समय में दक्षिण की तरफ से दरियाव खुली पृथिवी में आया था जिस से बहुत सी पृथिवी जल मे चली ऋषभदेव के समय में जो नकशा जम्बूऔर ही शकल दीखने लगी है, दरियाव गई तथा दरियाव ने उत्तर में भी इवर से ही चक्कर खाया था, द्वीप भरतक्षेत्र का था वह अब विगड गया है अर्थात् उस की के आये हुए जल में बर्फ जम गई है इस लिये अव उस से आगे नहीं जा सकते हैं, इगलिश मैंन इसी लिये कह देते हैं कि पृथिवी इतनी ही है परन्तु धर्मशास्त्र के कथनानुसार पृथिवी बहुत हैं तथा देशविभाग के कारण उस के मालिक राजे भी बहुत हैं, वर्तमान समय मे बुद्धिमान् अग्रेज भी पृथिवी की सीमा का खोज करने के लिये फिरते हैं परन्तु वे भी वर्फ के कारण आगे नहीं जा सकते हैं, देखो । खोज करते २ जिस प्रकार अमेरिका नई दुनिया का पता लगा, उसी प्रकार कालान्तर में भी खोज करनेवाले बुद्धिमान् उद्यमी लोगों को फिर भी कई स्थानों के पते मिलेंगे, इस लिये सर्वज्ञ तीर्थकर ने जो केवल ज्ञान द्वारा देख कर प्रकाशित किया है वह सब यथार्थ है, क्योंकि इस के सिवाय वाकी के सब पदार्थों का निर्णय जो उन्हों ने कीया है तथा निर्णय कर उन का कथन किया है जब वे सब पदार्थ सत्यरूप में दीख रहे है तथा सत्य है तो यह विषय कैसे सत्य नहीं होगा, जो बात हमारी समझ में न आवे वह हमारी भूल है इस में आप्त वक्ताओं का कोई दोष नहीं है, भला सोचो तो सही कि इतनी सी पृथ्वी में पृथ्वी की गोलाई का मानना प्रमाण से कैसे सिद्ध हो सकता है, हा वेशक भरत क्षेत्र की गोलाई से इस हिसाब को हम न्यायपूर्वक स्वीकार करते है |
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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