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________________ पञ्चम अध्याय ॥ ६४१ यह (श्रीकरण) बड़ा शूरवीर था, इस ने अपनी भुजाओं के बल से मच्छेन्द्रगढ़ को फतह किया था, एक समय का प्रसंग है कि बादशाह का खजाना कहीं को जा रहा था उस को राना श्रीकरण ने लूट लिया, जब इस बात की खबर बादशाह को पहुंची तब उस ने अपनी फौज को लड़ने के लिये मच्छंद्रगढ़ पर भेज दिया, राना श्रीकरण बादशाह की उस फौज से खूब ही लड़ा परन्तु आखिरकार वह अपना शूरवीरत्व दिखला कर उसी युद्ध में काम आया, राना के काम आ जाने से इधर तो बादशाह की फौज ने मच्छेन्द्रगढ़ पर अपना कब्जा कर लिया उधर राना श्रीकरण को काम आया हुआ सुन कर राना की स्त्री रतनादे कुछ द्रव्य (जितना साथ में चल सका) और समधर आदि चारों पुत्रों को लेकर अपने पीहर (खेड़ीपुर ) को चली गई और वही रहने लगी तथा अपने पुत्रों को अनेक प्रकार की कला और विद्या को सिखला कर निपुण कर दिया, विक्रमसंवत् १३२३ ( एक हजार तीन सौ तेईस ) के आपाढ़ वदि २ पुष्य नक्षत्र गुरु. वार को खरतरगच्छाधिपति जैनाचार्य श्री जिनेश्वर सूरि जी महाराज विहार करते हुए वहाँ (खेड़ीपुर में ) पधारे, नगर में प्रवेश करने के समय महाराज को बहुत उत्तम शकुन हुआ, उस को देख कर सूरिजी ने अपने साथ के साधुओं से कहा कि-"इस नगर में अवश्य जिनधर्म का उद्योत होगा" चौमासा अति समीप था इस लिये आचार्य महाराज उसी खेड़ीपुर में ठहर गये और वही चौमासे भर रहे, एक दिन रात्रि में पद्मावती देवी ने गुरु से कहा कि-"प्रातःकाल बोहित्य के पोते चार राजकुमार व्याख्यान के समय आगे और प्रतिबोध को प्राप्त होंगे" निदान ऐसा ही हुआ कि उस के दूसरे दिन प्रातःकाल जब आचार्य महाराज दया के विषय में धर्मोपदेश कर रहे थे उसी समय समधर आदि चारों राजपुत्र वहाँ आये और नमन वन्दन आदि शिष्टाचार कर धर्मोपदेश को सुनने लगे तथा उसी के प्रभाव से प्रतिबोध को प्राप्त हुए अर्थात् आचार्य महाराज से उन्हों ने शास्त्रोक्त विधि से श्रावक के वारह व्रतों का ग्रहण किया तथा आचार्य महाराज ने उन का माहाजन वश और वोहित्थरा गोत्र स्थापित किया, इस के पश्चात् उन्हो ने धर्मकार्यों में द्रव्य लगाना शुरू किया तथा उक्त चारों भाई सघ निकाल कर और आचार्य महाराज को साथ लेकर सिद्धिगिरि की यात्रा को गये तथा मार्ग में प्रतिस्थान में उन्हों ने साधी भाइयों को एक मोहर और सुपारियों से भरा हुआ एक थाल लाहन में दिया, इस से लोग इन को फोफलिया कहने लगे, वस तब ही से बोहित्यरा गोत्र में से फोफलिया शाखा प्रकट हुई, इस यात्रा में उन्हो ने एक करोड द्रव्य लगाया, जब लौट कर घर पर जाये तव सब ने मिल कर समधर को सघपति का पद दिया । समघर के तेजपाल नामक एक पुत्र था, पिता समधर स्वय विद्वान् था अत उसने १-इसी नाम का अपनश वोयरा हुआ है ॥
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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