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________________ म नाम सेवादी (सा ७१० बैनसम्प्रदायशिक्षा ॥ विचार करने पर पाठकों को इस के अनेक प्राचीन उदाहरण मिल सकते हैं भव हम उन (पापीन उदाहरणों) न कुछ मी उठेस करमा नहीं चाहते हैं किन्तु इस विष पथिमीय विद्वानों के वो एक उदाहरण पाठों की सेवा में अवश्य उपसित रते है, देखिये अठारही शताम्दी (सदी) में मेमरे "एनीमल मेगनेतीबम" (मिस ने अपने ही नाम से अपने भाविष्कार का नाम "मेस्मेरिनम" रक्खा तमा निस ३ भपने आविष्कार की सहायता से अनेक रोगियों को मच्छा पिया) अपने नगन विपार के प्रकट करने के मारम्म में कैसा उपहास हो पुकारे, महाँ सुक किनबहान सस्वरों तभा दसरे छोगों ने भी उस के विचारों को ईसी में उड़ा दिया और इस विष को प्रकट करमे पाठे ढाक्सर मेसर को लोग ठग बससाने ठो, परन्तु "सत्यमेव विवरत" इस पाप के भनुसार ठस ने अपनी सस्पता पर न निधय रस्सा, जिस का परिणाम या हुमा कि-उस की उस विपा की तरफ 5छ लोगों प्यान हुबा तथा उसे, भान्दोग्न होने लगा, कुछ काम पमा भमेरिका बासों ने इस विधा में विशेष पन्ना किया निस से इस विपा की सारता प्रकट हो गई, फिर क्या था इस क्पिा प खूब । मचार होने म्गा और पियासोफिकल सुसाइटी के द्वारा या विपा समस्त देशों में अपर हो गई तथा दो २ मोफेसर विद्वान बन इस का सम्पास करने लगे। दूसरा उदाहरण देखिये-सी सन् १८२८ में सब से प्रथम बब सात पुस्लो न मय (वारू बावराव) के न पीने का नियम ग्रहण कर मप का प्रचार छोगों में कम करना प्रया करना प्रारम किया था उस समय उन का पानी उपहास हुमा बा, विशेषता या किस उपहास में विना विचारेपो २ मुयोग्य मोर नामी शाह मी सम्मीमित (पान हो गये थे, परन्त इवना उपहास होने पर भी उफ ( मप न पीने का नियम बन या ठोगा ने अपने नियम नही छोड़ा तथा उसके लिये घेरा करते ही गये, परिणाम दुमा कि-दूसरे भी मने मन उनके भनुगामी हो गये, माज उसी का यह मा फर प्रत्यको कि-नगर में ( यपपि वहाँ मप भ भप भी बहुत कुछ सर हे तपापि ) मपपान विरुद्ध सेको मामियों सापित हो चुकी हैं या इस समय र प्रिटन में साठ मस मनुप्य मप से पिटकुल परहेज करते हैं इस से पनुमान । जा सकता है कि वैसे गत सताम्दी में उपरे हुए मुस्तमें में गुगमी म सागर छिया चा पुची उसी सम्पर वर्तमान प्रताम्दी भन्त ठरु मप का व्यापार भाग त्पन्त बन्द र दिसा माना मापर्यजनक मरी है। इसी मनर तीसरा सवारण देखिये-पूराप में मनस्पति श्री राम समबन र मसी पुराफा मसमर्थन करने वाली मछी सन् १८१. में मेनार में भाग परु ने मिरज सापिठ भी उस समय भी उसी मण्डसी)के समारम्वा
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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