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________________ ६०१ चतुर्थ अध्याय ।। यह खैचतान निद्रावस्था (नीद की हालत ) और एकाकी ( अकेले ) होने के समय में नहीं होती है किन्तु जब रोगी के पास दूसरे लोग होते है तब ही होती है तथा एकाएक (अचानक ) न होकर धीरे २ होती हुई मालूम पडती है, रोगी पहिले हँसता है, बकता है, पीछे डसके भरता है और उस समय उस के गोला भी ऊपर को चढ़ जाता है, खैचतान के समय यद्यपि असावधानता मालूम होती है परन्तु वह प्राय अन्त में मिट जाती है । महात्मा, परोपकारी (दूसरो का उपकार करनेवाले ) और सत्यवादी (रात्य बोलनेवाले) थे तथा उन का वचन इस भव (लोक) और पर भव ( दूसरा लोक) दोनों में हितकारी (भलाई करनेवाला) है, इसी लिये हम ने भी इस ग्रन्य में उन्ही महात्माओ के वचनों को अनेक शास्त्रों से लेकर सग्रहीत (इकट्ठा) किया है, किन्तु जिन लोगो ने उक्त महात्माओं के वचनों को नहीं माना, वे अविद्या के उपासक समझे गये और उसी के प्रसाद से वे धर्म को अधर्म, सत्य को असत्य, असत्य को सत्य, शुद्ध को अशुद्ध, अशुद्ध को शुद्ध, जड को चेतन, चेतन को जड तथा अधर्म को धर्म समझने लगे, वस उन्हीं लोगों के प्रताप से आज इस पवित्र गृहस्थाश्रम की यह दुर्दशा हो रही है और होती जाती है तथा इस आश्रम की यह दुर्दशा होने से इस के आश्रयीभूत (सहारा लेनेवाले) शेप तीनों आश्रमो की दुर्दशा होने मे आश्चर्य ही क्या है ? क्योंकि-"जैसा आहार, वैसा उद्गार" वस-हमारे इस पूर्वोक्त (पहिले कहे हुए) वचन पर थोडा सा ध्यान दो तो हमारे कयन का आशय (मतलव ) तुम्हें अच्छे प्रकार से मालूम हो जावेगा। (प्रश्न ) आपने भूत प्रेत आदि का केवल वह्म बतलाया है, सो क्या भूत प्रेत आदि है ही नहीं ? (उत्तर) हमारा यह कथन नहीं है कि-भूत प्रेत आदि कोई पदार्थ ही नहीं है, क्योंकि हम सव ही लोग शास्त्रानुसार खर्ग और नरक आदि सव व्यवहारो के माननेवाले हे अत हम भूत प्रेत आदि भी सब कुछ मानते हैं, क्योंकि जीवविचार आदि ग्रन्थों में व्यन्तर के आठ भेद कहे हे-पिशाच, भूत, यक्ष, राक्षस, किनर, किम्पुरुप, महोरग और गन्धर्व, इस लिये हम उन सब को यथावत् (ज्यों का त्यों) मानते हैं, इस लिये हमारा कथन यह नहीं है कि भूत प्रेत आदि कोई पदार्य नहीं है किन्तु हमारे कहने का मतलब यह है कि-गृहस्थ लोग रोग के समय में जो भूत प्रेत आदि के वहम मे फंस जाते हैं सो यह उन की मूर्खता है, क्योंकि-देखो! ऊपर लिसे हुए जो पिशाच आदि देव है वे प्रत्येक मनुष्य के शरीर मे नहीं आते हैं, हां यह दूसरी बात है कि पूर्व भव (पूर्व जन्म ) का कोई वैरानुवन्ध (वैर का सम्बध ) हो जाने से ऐसा हो जावे ( किसी के शरीर मे पिशाचादि प्रवेश करे ) परन्तु इस बात की तो परीक्षा भी हो सकती है अर्थात् शरीर में पिशाचादि का प्रवेश है वा नहीं है इस वात की परीक्षा को तुम सहज मे थोडी देर में ही कर सकते हो, देखो ! जब किसी के शरीर मे तुम को भूत प्रेत आदि की सम्भावना हो तो तुम किसी छोटी सी चीज को हाथ की मुट्ठी में वन्द करके उस से पूछो कि हमारी मुट्ठी में क्या चीज है ? यदि वह उस चीज को ठीक २ वतला दे तो पुन भी दो तीन वार दूसरी २ चीजो को लेकर पूछो, जव कई वार ठीक २ सव वस्तुओं को बतला दे तो वेशक शरीर मे भूत प्रेत आदि का प्रवेश समझना चाहिये, यही परीक्षा भैरू जी तथा मावळ्या जी आदि के भोपों पर ( जिन पर भैरू जी आदि की छाया का आना माना जाता है ) भी हो सकती है, अर्थात् वे (भोपे ) भी यदि वस्तु को ठीक २ वतला देवे तो अलवत्तह उक्त देवों की छाया उन के शरीर मे समझनी चाहिये, परन्तु यदि मुट्ठी की चीज को न वतला सकें तो
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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