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________________ चतुर्थ अध्याय ॥ ५१९ है तथापि अशक्त (नाताकत ) मनुष्य और पाचनक्रिया के व्यतिक्रम ( गड़बड़ ) से युक्त मनुष्यपर उस हवा का असर शीघ्र ही होता है' । इस रोग का दूसरा कारण खुराक है अर्थात् कच्चा और भारी अन्न, मिर्च, गर्म मसाले और शाक तरकारी आदि के खाने से वादी तथा मरोड़ा उत्पन्न होता है ' । इस रोग की उत्पत्ति का क्रम यह है कि जब दस्त की कब्जी रहती है तथा उस के कारण मल आँतों में भर जाता है तथा वह मल आँतों के भीतरी पड़त को घिसता है तब मरोड़ा उत्पन्न होता है । इस के सिवाय-गर्म खुराक के खाने से तथा ग्रीष्म ऋतु (गर्मी की मौसम ) में सख्त जुलाव के लेने से भी कभी २ यह रोग उत्पन्न हो जाता है । लक्षण - मरोडे का प्रारंभ प्रायः दो प्रकार से होता है अर्थात् या तो सख्त मरोडा होकर पहिले अतीसार के समान दस्त होता है अथवा पेट में कब्जी होकर सख्त दस्त होता है अर्थात् टुकडे २ होकर दस्त आता है, प्रारम्भ में होनेवाले इस लक्षण के सिवाय बाकी सब लक्षण दोनों प्रकार के मरोडे में प्राय समान ही होते है । इस रोग में दस्त की शका वारवार होती है तथा पेट में ऐंठन होकर क्षण २ में थोड़ा २ दस्त होता है, दस्त की हाजत वारंवार होती है, कॉख २ के दस्त आता है ( उतरता है ), शौचस्थान में ही बैठे रहने के लिये मन चाहता है तथा खून और पी गिरता है । कभी २ किसी २ के इस रोग में थोडा बहुत बुखार भी हो जाता है, नाडी जल्दी चलती है और जीभपर सफेद थर ( मैल) जम जाती है । में ज्यों २ यह रोग अधिक दिनो का ( पुराना ) होता जाता है त्यों २ इस पीप अधिक २ गिरता है तथा ऐंठन की पीडा बढ़ जाती है, बडी ऑत के और खून पड़त में १- अशक्त और पाचन क्रिया के व्यतिक्रम से युक्त मनुष्य की जठराग्नि प्राय पहिले से ही अल्पवल होती है तथा आमाशय में पहिले से ही विकार रहता है अत उक्त हवा का स्पर्श होते ही उस का असर शरीर में हो कर शीघ्र ही मरोडा रोग उत्पन्न हो जाता है ॥ २ - तात्पर्य यह है कि उक्त खुराक के ठीक रीति से न पचने के कारण पेट मे आमरस हो जाता है वही आँतों में लिपट कर इस रोग को उत्पन्न करता है ॥ ३- मल आतों में और गुदा की भीतरी वली में फॅसा रहता है और ऐसा मालूम होता है कि वह गिरना चाहता है इसी से वारंवार दस्त की आशङ्का होती है ॥ ४- काँख २ के अर्थात् विशेष वल करने पर ॥ ५- वारवार यह प्रतीत होता है कि अब मल उतरना चाहता है इस लिये शोचस्थान से उठने को जी नहीं चाहता है ॥ ६- पीप अर्थात् कच्चा रस ( आम वा गिलगिला पदार्थ ) ॥ ७-क्योंकि ऑतों में फॅसा हुआ मल आँतों को रगडता है ॥ 1
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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