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________________ ३२८ जैनसम्मदामशिक्षा || से हृदयसम्बंधी अनेक मद्दाभयंकर रोग उत्पन्न हो जाते हैं तथा इदम निर्बल हो जाता है। गांजा, चरस, धतूरा और मांग-इन चारों पदार्थों के भी सेवन से खांसी और दमा भावि मनेक हृदय रोग दो खाते हैं, मगज में विक्षिप्तता को स्थान मिलता है, विचारशक्ति, स्मरणश्चति और बुद्धि का नाश होता है, इन का सेवन करनेवाला पुरुष सम्म मण्डली में बैठने योग्य नहीं रहता है तथा अनेक रोगों के उत्पन्न होने से इन का सेवन करनेवालों को भाषी उम्र में ही मरना पड़ता है। तमाखू - मान्यवरो ! वैचक ग्रन्थों के देखने से यह स्पष्ट प्रकट होता है कि तमाखू संखिया से भी अधिक नशदार और हानिकारक पदार्थ है अर्थात् किसी वनस्पति में इस के समान वा इस से अधिक नवा नहीं है । डाक्टर टेकर साहब का कथन है कि-" जो मनुष्य तमाखू के कारस्वानों में काम फरते हैं उन के शरीरमें नाना प्रकार के रोग हो जाते हैं अर्थात् भाड़े ही दिनों में उन के श्चिर में दर्द होने लगता है, भी ममकाने लगता है, मरू पट जाता है, सुखी घेरे रहती है, भूख कम हो आती है और काम करने की शक्ति नहीं रहती है।" इत्यादि । बहुत से वैद्यों और डाक्टरोंने इस बायको सिद्ध कर दिया है कि इस के धुएँ में नहर होता है इसलिये इस का धुआं भी शरीर की आरोग्यता को हानि पहुँचाता है अमात् जो मनुष्य समासू पीते हैं उन का जी मचलाने लगता है, कम होने लगती है, हिचकी उत्पन्न हो जाती है, श्वास कठिनता से लिया माता है और नाड़ी की चाल भीमी पड़ जाती है, परन्तु जब मनुष्य को इस का अभ्यास हो जाता है तब से सब बातें सेवन के समय में फम मालूम पड़ती है परन्तु परिणाम में अत्यन्त हानि होती है डाक्टर स्मिथ का कमन है कि-माखू के पीने से दिन की बात पहिले सेन और फिर धीरे २ कम हो जाती है । 1 वैद्यक प्रन्थों से यह स्पष्ट प्रकाशित है कि- तमाखू महुत ही जहरीली (विवेकी) वस्तु है, क्योंकि इस में कोशिया कामानिक एसिड और मगनेशिया आदि वस्तुमें मिठी रहती है जो कि मनुष्य के दिल को निर्बंध कर देती हैं कि जिस से खांसी और दम आदि नाना प्रकार के रोग उत्पन्न हो जाते है, भारोम्यता में अन्तर पड़ जाता है, वि पर फीट अर्थात् मैल जम जाता है, तिल्ली का रोग उत्पन्न होकर चिरकातक ठरता दे तथा प्रतिसमय में भी ममासा रहता है और मुख में दुर्गन्ध मुद्धि से विचारने की यह भाव है कि लोग मुसलमान तथा ईसाई परहेज करते हैं परन्तु बाद री खमासू ! तेरी भीति में लोग धर्म और परवाह न कर सब दी से परदेन को तोड़ देते थे, देखो ! बनी रहती है, भग आदि से तो बड़ा ही कर्म की भी कुछ सुभ तमासू के बनाने
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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