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________________ पञ्चम अध्याय | ६५५ वसे थे अतः उन को सब लोग पूगलिया कहने लगे, वेगवाणी गोत्र का एक पुरुष मकसूदाबाद में गया था उस के शरीर पर रोम ( बाल ) बहुत थे अतः वहाँ वाले लोग उस को “रुँवाल जी” कह कर पुकारने लगे, इसी लिये उस की औलादवाले लोग भी रुँवाल कहलाये, बहूफणा गोत्रवाले एक पुरुष ने पटवे का काम किया था अतः उस की औलादवाले लोग पटवा कहलाये, फलोधी में झावक गोत्र का एक पुरुष शरीर में बहुत दुबला था इस लिये सब लोग उस को मड़िया २ कह कर पुकारते थे इस लिये अब उस की औलादवाले लोग वहाँ मडिया कहलाते है, इस रीति से ओसवालों में बलाई चण्डालिया और भी ये भी नख है, ये (नख ) किसी नीच जाति के हेतु से नहीं प्रसिद्ध हुए है-किन्तु बात केवल इतनी थी कि इन लोगों का उक्त नीच जातिवालो के साथ व्यापार ( रोजगार ) चलता था, अतः लोगों ने इन्हें वैसा २ ही नाम दे दिया था, उन की औलादवाले लोग भी ऊपर कहे हुए उदाहरणों के अनुसार उन्हीं खापो के नाम से प्रसिद्ध हो गये, तात्पर्य यह है कि - ऊपर लिखे अनुसार अनेक कारणों से ओसवाल वंश में से अनेक शाखायें और प्रतिशाखाये निकलती गई । ओसवालो में बलाई और चण्डालिया आदि खांपो के नाम सुन कर बहुत से अक्ल के अन्धे कह बैठते है कि-जैनाचार्यों ने नीच जातिवालो को भी ओसवाल वश में शामिल कर दिया है, सो यह केवल उन की मूर्खता है, क्योंकि ओसवाल वश में सोलह आने में से पन्द्रह आने तो राजपूत ( क्षत्रियवश ) है, बाकी महेश्वरी वैश्य और ब्राह्मण है अर्थात् प्रायः इन तीन ही जातियो के लोग ओसवाल बने है, इस बात को अभी तक लिखे हुए ओसवाल वशोत्पत्ति के खुलासा हाल को पढ़ कर ही बुद्धिमान् अच्छे प्रकार से समझ सकते हैं'। पहिले लिख चुके है कि–एक सेवक ने अत्यन्त परिश्रम कर ओसवालों के १४४४ गोत्र लिखे थे, उन सब के नामो का अन्वेषण करने में यद्यपि हम ने बहुत कुछ प्रयत्न किया परन्तु वे नही मिले, किन्तु पाठकगण जानते ही है कि - उद्यम और खोज के करने से यदि सर्वथा नहीं तो कुछ न कुछ सफलता तो अवश्य ही होती है, क्योंकि यह १- गुजरात देश मे कुमारपाल राजा के समय में अर्थात् विक्रम संवत् वारह सौ मे पूर्णतिलक गच्छीय जैनाचार्य श्री हेमचन्द्र सूरि जी महाराज ने श्रीमालियों को प्रतिबोध दे कर जैनधर्मी श्रावक बनाया था जो कि गुजरात देश मे वर्त्तमान में दशे श्रीमाली और वीसे श्रीमाली, इन दो नामो से पुकारे जाते हैं तथा जैनी श्रावक कहलाते हैं, इन के सिवाय उक्त देश मे छीपे और भावसार भी जैन धर्म का पालन करते हैं और वे भी उक्त जैनाचार्य से ही प्रतिवोध को प्राप्त हुए हैं, उन में से यद्यपि कुछ लोग वैष्णव भी हो गये हैं परन्तु विशेष जैनी हैं, उक्त देश मे जो श्रीमाली तथा भावसार आदि जैनी हें उन के साथ ओसवालों का कन्या का देना लेना आदि व्यवहार तो नही होता है, परन्तु जैन धर्म का पालन करने से उन को ओसवाल वशवाले जन साधर्मी भाई अलवत्ता समझते हैं ॥
SR No.010863
Book TitleJain Dharm Shikshavali Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherShivprasad Amarnath Jain
Publication Year1923
Total Pages788
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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