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(६) , हे राजन् ! ऐसे विचार कर तप को ग्राण, पर्म का भाचरण, करना आवश्यक है।
हे पृथिवीपते ! जिस जीपने जैसे शुभ अथवा अशुभ कर्मवथा मुख दुःख उपार्जित न किए होते हैं, ननीं के प्रभाव से पर लोक को चला जाता है, और वेह कर्म ही उसके साथ जाते हैं, अन्य कोई भी जीव का साथी नहीं बनता।
हे महीपते ! इस प्रकार की व्यवस्था को देख कर भी क्यों वैराग्य को प्राप्त नहीं होता, अर्थात् इन सांसा. रिफ विनाशी, क्षणिक, अध्रव सुखों के ममत्त्व मा को त्याग कर कैपल्य रूपी नित्य ध्रुव मुखों की प्राप्ति का
प्रयत्न कर।
इस प्रकार मुनि के परम वैराग्य उत्पादन, स्वल्पापार, बहुव अर्थ सूचक, शराव (प्याले ) में सागर को भरने की कहावत को चरितार्थ करने वावा, सत्योपदेश श्रवल करके, पए संयत राजा अत्यन्त संवेग को प्राप्त
, और गर्दै मालि नामक प्रनगार के समीप वीतराम धमे में दीवा के लिए उपस्थित होगए, राज्य को त्याग