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पश्चम अध्याय ॥
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उपहास किया गया था परन्तु उक्त खुराक के समर्थन में सत्यता विद्यमान थी इस कारण आज इंग्लेंड, यूरोप तथा अमेरिका में वनस्पति की खुराक के समर्थन में अनेक मण्ड. लियां स्थापित हो गई है तथा उन में हज़ारों विद्वान्, यूनीवर्सिटी की बड़ी २ डिग्रियों को प्राप्त करने वाले, डाक्टर, वकील और बड़े २ इजीनियर आदि अनेक उच्चाधिकारी जन सभासद्रूप में प्रविष्ट हुए है, तात्पर्य यह है कि-चाहें नये विचार वा आविष्कार हो, चाहं प्राचीन हो यदि वे सत्यता से युक्त होते है तथा उन में नेकनियती और इमानदारी से सदुद्यम किया जाता है तो उस का फल अवश्य मिलता है तथा सदुद्यम वाले का ही अन्त में विजय होता है ॥
यह पञ्चम अध्याय का खरोदयवर्णन नामक दशवॉ प्रकरण समाप्त हुआ।
ग्यारहवाँ प्रकरण-शकुनावलिवर्णन ॥
शकुनविद्या का स्वरूप ॥ इस विद्या के अति उपयोगी होने के कारण पूर्व समय में इस का बहुत ही प्रचार था अर्थात् पूर्व जन इस विद्या के द्वारा कार्य सिद्धि का ( कार्य के पूर्ण होने का ) शकुन ( सगुन ) ले कर प्रत्येक ( हर एक ) कार्य का प्रारम्भ करते थे, केवल यही कारण था कि-उन के सब कार्य प्रायः सफल और शुभकारी होते थे, परन्तु अन्य विद्याओं के समान धीरे २ इस विद्या का भी प्रचार घटता गया तथा कम बुद्धि वाले पुरुष इसे बच्चों का खेल समझने लगे और विशेष कर अंग्रेज़ी पढ़े हुए लोगो का तो विश्वास इस पर नाममात्र को भी नहीं रहा, सत्य है कि-"न वेत्ति यो यस्य गुणप्रकर्ष स तस्य निन्दा सतत करोति' अर्थात् जो जिस के गुण को नहीं जानता है वह उस की निरन्तर निन्दा किया करता है, अस्तु-इस के विषय में किसी का विचार चाहे कैसा ही क्यो न हो परन्तु पूर्वीय सिद्धान्त से यह तो मुक्त कण्ठ से कहा जा सकता है कि यह विद्या प्रा. चीन समय में अति आदर पा चुकी है तथा पूर्वीय विद्वानों ने इस विद्या का अपने बनाये हुए ग्रन्थों में बहुत कुछ उल्लेख किया है ।
पूर्व काल में इस विद्या का प्रचार यद्यपि प्रायः सब ही देशों में था तथापि मारवाड देश में तो यह विद्या अति उत्कृष्ट रूप से प्रचलित थी, देखो! मारवाड़ देश में पर्व समय में (थोड़े ही समय पहिले ) परदेश आदि को गमन करने वालो के सहायक ( चोर आदि से रक्षा करने वाले ) बन कर भाटी आदि राजपूत जाया करते थे वे लोग जानवरों की भाषा आदि के शुभाशुभ शकुनों को भली भाँति जानते थे, हड़बूकी नामक