Book Title: Jain Dharm Shikshavali Part 05
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Shivprasad Amarnath Jain

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Page 731
________________ पञ्चम अध्याय ॥ ६९९ जब किसी मनुष्य के अन्तःकरण में किसी कारण से किसी विषय का उद्भास ( प्रकाश ) होता है तब सब से प्रथम वह मनोवृत्ति के द्वारा संकल्प और विकल्प करता है कि मुझे यह कार्य करना चाहिये वा नहीं करना चाहिये, इस के पश्चात् बुद्धिवृत्ति के द्वारा उस ( कर्त्तव्य वा अकर्तव्य ) के हानि लाभ को सोचता है, पीछे चित्तवृत्ति के द्वारा उस ( कर्त्तव्य वा अकर्त्तव्य ) का निश्चय कर लेता है तथा पीछे अहङ्कारवृत्ति के द्वारा अभिमान प्रकट करता है कि मै इस कार्य का कर्त्ता ( करने वाला ) वा अकर्त्ता ( न करने वाला ) हॅू | ) यदि यह प्रश्न किया जावे कि - किसी विषय को देख वा सुन कर अन्त करण की चारों वृत्तिया क्यो क्रम से अपना २ कार्य करने लगती है तो इस मनुष्य को स्वकर्मानुकूल मननशक्ति ( विचार करने की शक्ति हुई है, बस इसी लिये प्रत्येक विषय का विज्ञान होते ही उस चारों वृत्तियाँ क्रम से अपना २ कार्य करने लगती है । बुद्धिमान् यद्यपि इतने ही लेख से अच्छे प्रकार से समझ गये होगे कि मनुष्य सुसङ्गति में रह कर क्यों सुधर जाता है तथा कुसङ्गति में पड़ कर क्यों विगड़ जाता है तथापि साधारण जनों के ज्ञानार्थ थोड़ा सा और भी लिखना आवश्यक समझते है, देखिये :यह तो सब ही जानते है कि - मनुष्य जब से उत्पन्न होता है तब ही से दूसरो के चरित्रों का अवलम्बन कर ( सहारा ले कर ) उसे अपनी जीवनयात्रा के पथ ( मार्ग ) को नियत करना पड़ता है, अर्थात् खय ( खुद ) वह अपने लिये किसी मार्ग को नियत नहीं कर सकता है', हॉ यह दूसरी बात है कि - प्रथम किन्ही विशेष चरित्रो ( खास का उत्तर यह है कि स्वभाव से ही प्राप्त मननशक्ति के द्वारा १- देखिये वालक अपने माता पिता आदि के चरित्रों को देख कर प्राय उसी ओर झुक जाते हैं अर्थात् वैसा ही व्यवहार करने लगते हैं, इस से बिलकुल सिद्ध है कि मनुष्य की जीवनयात्रा का मार्ग सर्वथा दूसरों के निदर्शन से ही नियत होता है, इस के सिवाय पाश्चात्य विद्वानों ने इस बात का प्रत्यक्ष अनुभव भी कर लिया है कि यदि मनुष्य उत्पन्न होते ही निर्जन स्थान मे रक्खा जावे तो वह बिलकुल मानुषी व्यवहार से रहित तथा पशुवत् चेष्टा वाला हो जाता है, कहते हैं कि किसी वालक को उत्पन्न होने से कुछ समय के पश्चात् एक भेडिया उठा ले गया और उसे ले जा कर अपने भिटे में रक्खा, उस बालक को भेडिये ने खाया नहीं किन्तु अपने बच्चे के समान उस का भी पालन पोषण करने लगा ( कभी २ ऐसा होता है कि-भेडिया छोटे बच्चों को उठा ले जाता है परन्तु उन्हें मारता नहीं है किन्तु उन का अपने वर्षों के समान पालन पोषण करने लगता है, इस प्रकार के कई एक वालक मिल चुके हैं जो कि किसी समय सिकन्दरे आदि के अनाथलयों में भी पोषण पा चुके हैं ), बहुत समय के बाद देखा गया कि वह बालक मनुष्यों की सी भाषा को न बोल कर भेडिये के समान ही घुरघुर शब्द करता था, भेडिये के समान ही चारों पैरों ( हाथ पैरों के सहारे ) चलता था, मनुष्य को देख कर भागता वा चोट करता था तथा जीभ से चप २ कर पानी पीता था, तात्पर्य यह है कि उस के सर्व कार्य भेडिये के समान ही थे, इस से निर्भम सिद्ध है कि मनुष्य की जीवनयात्रा का पथ बिलकुल ही दूसरों के अवलम्बन पर नियत और निर्भर है अर्थात् जैसा वह दूसरों को करते देखता है वैसा ही स्वय करने लगता है ॥ To

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