Book Title: Jain Dharm Shikshavali Part 05
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Shivprasad Amarnath Jain

View full book text
Previous | Next

Page 734
________________ ७०२ जैनसम्प्रदामशिक्षा | पालन करता है उसी प्रकार मना का धर्म है कि वह अपने राजा की आज्ञा को माने अर्थात् राजा के नियत किये हुए नियमों का उठान न कर सर्वदा उन्हीं के अनुसार वर्धा करे | प्राचीन श्वास्त्रकारों ने राजभक्ति को भी एक अपूर्व गुण माना है, जिस मनुष्य में यह गुण विद्यमान होता है वह अपनी सांसारिक जीवनमात्रा को सुख से म्पतीस कर सकता है। राममति के दो भेद हैं- प्रथम भेद तो वही है जो अभी लिख चुके हैं अर्थात् राज्य के नियत किये हुए नियमों के अनुसार वर्षाव करना, दूसरा मेव यह है कि-समानु सार आवश्यकता पड़ने पर यथाशकि तन मन धन से राजा की सहायता करना । देखो | इतिहासों से विदित है कि पूर्व समय में बिन छोगों ने इस सर्वोचम पुष रामभक्ति के दोनों भेदों का यथावत् परिपाठन किया है उन की सांसारिक जीवनमात्रा किस प्रकार सुख से व्यतीत हो चुकी है औौर राज्य की भोर से उन्हें इस सद्गुण का परिपालन करने के हेतु कैसे २ उत्तम अधिकार जागीरें तथा उपाधियाँ प्राप्त हो चुकी है। राजमति का मयोचित पासन न कर यदि कोई पुरुष चाहे कि मैं अपनी जीवन यात्रा को सुख से व्यतीत करूँ तो उस की यह बात ऐसी असम्मन है जैसे कि पश्चि मीम देश को मात होने की इच्छा से पूर्व दिशा की ओर गमन करना । मिस मकार एक कुटुम्ब के बाल मधे आदि सर्व मन अपने कुटुम्ब के अधिपति की नियत की हुई प्रणामी पर चल कर अपने जीवन को सुखपूर्वक व्यतीत करते हैं सा उस कुटुम्ब में सर्वदा सुख और शान्ति का निवास बना रहता है ठीक उसी प्रकार राजा के नियत किये हुए नियमों के अनुसार बर्चान करने से समस्त मजाबन अपने जीवन को सुखपूर्वक व्यतीत कर सकते हैं तथा उन में सर्वदा सुख और शान्ति का निवास रह सकता है, इस के मिरुद्ध जब मयाचन राजनियमों का उलाहन कर खेच्छापूर्वक (अपनी मर्जी के अनुसार भर्थात् मनमाना ) बर्चा करते या करने लगते हैं व उन को एक ऐसे कुटुम्ब फे समान कि जिस में सब ही किसी एक को प्रधान न मान कर और उस की मात्रा का अनुसरण न कर सम्रतापूर्वक मर्दान करते हों तथा कोई किसी को आधीनता की न पाहता दो चारों भोर से दुख और आपतियाँ घेर जेठी वह दूसरी बात है कि राजनिगमों में गरि कोई नियम प्रजा के विपरीत हो अर्थात् सौ और कर्तव्य में बाबा पहुंचाने का हो तो उस के विषय में एकमत होकर राजा से निवेदन कर उ संसोधन करना या कहिये प्रयोज्य तथा पुत्रवत् प्रयपाक राजा प्रप्या के शाषक निगम को कमी हाँ रखते है, क्योंकि मस्य के एक किये ही वो विनमा का किया जाता है

Loading...

Page Navigation
1 ... 732 733 734 735 736 737 738 739 740 741 742 743 744 745 746 747 748 749 750 751 752 753 754 755 756 757 758 759 760 761 762 763 764 765 766 767 768 769 770 771 772 773 774 775 776 777 778 779 780 781 782 783 784 785 786 787 788