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पञ्चम अध्याय ॥
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का पहिला आधा भाग, विष्टि, वैधृति, व्यतीपात, कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी (तेरस ) से प्रतिपद् ( पडिवा ) तक चार दिवस, दिन और रात्रि के बारह बजने के समय पूर्व और पीछे के दश पल, माता के ऋतुधर्म संबंधी चार दिन, पहिले गोद लिये हुए लड़के वा लड़की के विवाह आदि में उस के जन्मकाल का मास, दिवस और नक्षत्र, जेठ का मास, अधिक मास, क्षय मास, सत्ताईस योगो में विष्कुम्भ योग की पहिली तीन घड़ियाँ, व्याघात योग की पहिली नौ घड़ियों, शूल योग की पहिली पाँच घडियॉ, वज्र योग की पहिली नौ घड़ियाँ, गण्ड योग की पहिली छ. घडियॉ, अतिगण्ड योग की पहिली छः घड़ियाँ, चौथा चन्द्रमा, आठवाँ चन्द्रमा, वारहवाँ चन्द्रमा, कालचन्द्र, गुरु तथा शुक्र का अस्त, जन्म तथा मृत्यु का सूतके, मनोभङ्ग तथा सिंह राशि का बृहस्पति ( सिंहस्थ वर्ष ), इन सब तिथि आदि का शुभ कार्य में ग्रहण नहीं करना चाहिये ॥
१- सूतक विचार तथा उस में कर्त्तव्य - पुत्र का जन्म होने से दश दिन तक, पुत्री का जन्म होने से वारह दिन तक, जिस स्त्री के पुत्र हो उस (स्त्री) के लिये एक मास तक, पुत्र होते ही मर जावे
एक दिन तक, परदेश में मृत्यु होने से एक दिन तक, घर में गाय, भैंस, घोडी और कॅटिनी के व्याने से एक दिन तक, घर में इन ( गाय आदि ) का मरण होने से जब तक इन का मृत शरीर घर से बाहर न निकला जावे तव तक, दास दासी के पुत्र तथा पुत्री आदि का जन्म वा मरण होने से तीन दिन तक तथा गर्भ के गिरने पर जितने महीने का गर्भ गिरे उतने दिनों तक सूतक रहता है ।
जिस के गृह में जन्म वा मरण का सूतक हो वह वारह दिन तक देवपूजा को न करे, उस मे भी मृतकसम्बधी सूतक मे घर का मूल स्कव (मूल काँधिया ) दश दिन तक देवपूजा को न करे, इस के सिवाय शेष घर वाले तीन दिन तक देवपूजा को न करें, यदि मृतक को छुआ हो तो चौवीस प्रहर तक प्रतिक्रमण ( पडिक्कमण ) न करे, यदि सदा का भी अखण्ड नियम हो तो समता भाव रख कर शम्बरपने में रहे परन्तु मुख से नवकार मन्त्र का भी उच्चारण न करे, स्थापना जी के यदि मृतक को न छुआ हो तो केवल आठ प्रहर तक प्रतिक्रमण ( पडिक्कमण ) न पर पन्द्रह दिन के पीछे उस का दूध पीना कल्पता है, गाय के वच्चा होने पर भी पन्द्रह दिन के पीछे ही उस का भी दूध पीना कल्पता है तथा बकरी के बच्चा होने पर उस समय से आठ दिन के पीछे दूध पीना कल्पता है ।
हाथ न लगावे, परन्तु
करे, भेस के वच्चा होने
ऋतुमती स्त्री चार दिन तक पात्र आदि का स्पर्श न करे, चार दिन तक प्रतिक्रमण न करे तथा पाँच दिन तक देवपूजा न करे, यदि रोगादि किसी कारण से तीन दिन के उपरान्त भी किसी स्त्री के रक्त चलता हुआ दीखे तो उस का विशेष दोष नहीं माना गया है, ऋतु के पश्चात् स्त्री को उचित है कि - शुद्ध विवेक से पवित्र हो कर पाँच दिन के पीछे स्थापना पुस्तक का स्पर्श करे तथा साधु को प्रतिलाभ देवे, ऋतुमती स्त्री जो तपस्या ( उपवासादि ) करती है वह तो सफल होती ही है परन्तु उसे प्रतिक्रमण आदि का करना योग्य नहीं है (जैसा कि ऊपर लिख चुके है ), यह चर्चरी प्रन्थ मे कहा है, जिस घर मे जन्म
मरण का सूतक हो वहाँ बारह दिन तक साधु आहार तथा पानी को न बहरै ( ले ), क्योंकि - निशीथसूत्र के सोलहवें उद्देश्य में जन्म मरण के सूतक से युक्त घर दुर्गछनीक कहा है ॥