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मैनसम्प्रदायशिक्षा । तो यह है कि लोग मापीन प्रथा को मूले हुए हैं इस लिये वे सभा आदि में कम एकत्रित होते हैं सभा उन के उद्देश्यों और माँ को फम समझते हैं इसी रिमे ये उस भोर ध्यान मी बहुत ही कम देते हैं, रहा किसी समा (कान्फ्रेंस पावि ) का निमिव सम्मतियों का विषय, सो समासमंधी इस प्रकार की सम बातों का विचार सो दुरिमान भोर विद्वान् सर्म ही कर सकते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि प्रायः सब ही गिरायों में सत्यासत्य का मिश्रण होता दे, प्रचलित पिचारों में बिकु सत्य ही विपय हो मोर नर विचारों में रिसर असत्य ही विषय हो ऐसा मान सेना सर्वपा ममास्पद है, क्योंकि उक वोनो विचारों में न्यूनाधिक भश्च में सस्प रहा करता है।
देसो! बहुत से लोग तो यह कहते हैं कि न घेताम्बर फाफ्रेंस पाँच वर्ष से हो रही है मौर उस में लाखों रुपये वर्ष हो चुके हैं भौर उसके समप में अब भी बहुत कुछ सर्प हो रहा है परन्तु कुछ मी परिणाम नहीं निका, महुत से गेग पर प्रवे। कि-बैन घेताम्बर प्रमेंस के होने से जैन धर्म की बहुत उन्नति हुई है, भर उठ दोनों विचारों में सस्प का मंश फिस विचार में भषिको इस का निर्णय बुद्धिमान् भौर वि द्वान् बन कर सकते हैं। __ यह तो निमम ही है कि गणित तमा यूमि के विषय के सिवाय दूसरे किसी विपम में निर्विवाष सिद्धान्त स्थापित नहीं हो सकता है, सो। गणित विषयक सिद्धान्त में यह सर्वमत है कि-पॉप में दो के मिगने से सात ही होते हैं, पाँच प पार से गुणा करने पर पीस ही होते हैं, यह सिद्धान्त ऐसा है कि इस को उम्टने में बमा भी मसमर्भ है परन्तु इस प्रकार त्र निश्चित सिद्धान्त राम्यनीति वा पर्म भार पिनादास्पद विषयों में माननीय हो, या मात पति कठिन वमा असम्भवमत् । क्योंकि-मनुप्मों की महतियों में मेव होने से सम्मति में मेव होना एक स्वाभाविक पात इसी तत्त्व का विचार कर हमारे शामकारों ने स्पाराव प्र वाम स्थापित किया है भौर भिन्न २ नयों के रासों को समझा कर पकान्तवाद का निरसन (म्मणान ) किया है, इसी नियम के भनुसार बिना किसी पभपात के हम या सकस कि-बैन श्रेताम्बर का पेंस ने भीमान भी गुलाबचन्द भीड़ा एम् प न मध्यनीय परिमम कर प्रभम फगेपी वीर्य में स्थापित किया था, इस सभा के स्वाति
फरने से उक महोदय का मभीए मम वायुनाति, देशोनति, वियादि, एक्सामगार । धर्मविपरस्पर सानुमति सधा कुरीति निवारण भावि ही भा, भव यह दूसरी
है कि-सम्मतिविभिमाने से सभा सरपम पर किसी प्रघर फा भवरोध पर से समाश्म अब तक पूर्ण न हुए दो या कम हुए हो, परन्तु यह विपप पावापास्पद मनाने पास नदीदा सकता है, पाठकगण समा सकसे कि-मनुर