Book Title: Jain Dharm Shikshavali Part 05
Author(s): Atmaramji Maharaj
Publisher: Shivprasad Amarnath Jain

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Page 726
________________ ६९४ चैनसम्प्रदानशिक्षा || लघुता की अति प्रशंसा की है, देखो! अध्यात्मपुरुष श्री चिदानन्दजी महाराज ने लघुता का एक स्ववन (खोत्र ) बनाया है उस का भावार्थ यह है कि चन्द्र और सूर्य बड़े हैं इस लिये उन को महण लगता है परन्तु ठषु वारागण को ग्रहण नहीं लगता है संसार में यह कोई भी नहीं कहता है कि तुम्हारे मागे लागू किन्तु सब कोई यही कहता है कि-सुम्हारे पगे छागूँ, इस का हेतु यही है कि धरण ( पैर ) दूसरे सब भर्गो से रू है इस लिये उन को सब नमन करते हैं, पूर्णिमा के चन्द्र को कोई नहीं देखता र न उसे नमन करता है परन्तु द्वितीया के चन्द्र को सब ही देखते और उसे नमन करते है क्योंकि यह खषु होता है, कीड़ी एक अति छोटा चन्तु है इस सिये चाहे जैसी रस बती (रसोई ) तैयार की गई हो सब से पहिले उस ( रखबती ) का स्वाद उसी ( कीड़ी ) को मिलता है किन्तु किसी बड़े जीव को नहीं मिलता है, जब राजा किसी पर कड़ी दृष्टि माला होता है तब उस के कान और नाक भादि उत्तमानों को ही कट बाता है किन्तु लघु होने से पैरों को नहीं कटवाता है, यदि बालक किसी के कानों को खींचे, मूँछों को मरोड़ देने अथवा सिर में भी मार देये तो मी वह मनुष्य प्रसव ही होता है, देखिये ! यह चेष्टा कितनी अनुचित है परन्तु लघुतायुक्त बालक की चेष्टा होने से सब ही उस का सहन कर लेते हैं किन्तु किसी बड़े की इस चेष्टा को कोई भी नहीं सह सकता है, यदि कोई बड़ा पुरुष किसी के साथ इस पेष्टा को करे वो कैसा मन हो माने, छोटे बालक को अन्य पुर में जाने से कोई भी नहीं रोकता है यहाँ तक कि महाँ पहुँचे हुए बालक को भन्तपुर की रानियाँ भी खेह से सिखाती है किन्तु बड़े हो जाने पर उसे भन्त पुर में कोई नहीं जाने देता है, यदि यह छा जाने यो सिरछेत्र भादि कम को उसे सहना पड़े, जब तक गाछक छोटा होता है तब तक सब ही उस की मार है मर्थात् माता पिता भारै माइ मावि सब ही उस की संभाल और निरीक्षण रखते है, उस के बाहर निकल जाने पर सब को थोड़ी ही देर में चिन्ता हो जाती है कि बच्चा अभी तक क्यों नहीं आया परन्तु जब वह बड़ा हो जाता है तब उस की कोई चिन्ता नहीं करता है, इन सब उदाहरणों से सारांश यही निकलता है कि जा कुछ मुम्ब दे वह खघुता में ही है, जब हृदय में इस (रूपता) के सम्प्रभाष को स्थान मि जाता है उस समय सम स्वरानियों का मूल कारण मारमाभिमान और महत्वाकाक्षिस्व नेमः, अत्रममवान्ति सम्परा व १० भयात् समुद्र अभी (मनिवास ) नहीं होता है परन्तु (एना होने से ) यह जो से पूरित किया जाता हो यह बात (अत उस को अगरण की पूरित कर है? इस सपने को (बारिक द्वारा भत्र बनाय पाहय होइन निक्स में नयति हमें बहुत कुछ कियने रिवार के भगस गर्दा पनि रे पात्र के पात सम्पति आवश्यक

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