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चतुर्थ अध्याय ॥
६१३ "धर्म की दूसरी परीक्षा शील के द्वारा की जाती है-शीले नाम आचार का है, वह (शील) द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार का है-इन में से ऊपर की शुद्धि को द्रव्यशील कहते है तथा पाँचों इन्द्रियों के और क्रोध आदि कपायो के जीतने को भावशील कहते है, अतः जिस धर्म में उक्त दोनों प्रकार का शील कहा गया हो वही माननीय है।
"धर्म की तीसरी परीक्षा तप के द्वारा की जाती है-वह (तप) मुख्यतया बाह्य और आभ्यन्तर भेद से दो प्रकार का है, इस लिये जिस धर्म में दोनो प्रकार का तप कहा गया हो वही मन्तव्य है"। ___ "धर्म की चौथी परीक्षा दया के द्वारा की जाती है-अर्थात् जिस में एकेन्द्रिय जीव से
लेकर पञ्चेन्द्रिय तक जीवों पर दया करने का उपदेश हो वही धर्म माननीय है"। ___"हे नरेन्द्र ! इस प्रकार बुद्धिमान् जन उक्त चारों प्रकारों से परीक्षा करके धर्म का
अङ्गीकार ( स्वीकार ) करते है"। _ "श्री वीतराग सर्वज्ञ ने उस धर्म के दो भेद कहे है-साधुधर्म और श्रावकधर्म, इन में से साधुधर्म उसे कहते है कि-ससार का त्यागी साधु अपने सर्वविरतिरूप पञ्च महाव्रतरूपी कर्तव्यों का पूरा वर्ताव करे" । ___ "उन में से प्रथम महाव्रत यह है कि-सव प्रकार के अर्थात् सूक्ष्म और स्थूल किसी जीव को एकेन्द्रिय से लेकर पञ्चेन्द्रिय तक को न तो खय मन वचन काय से मारे, न मरावे और न मरते को भला जाने” । , "दूसरा महावत यह है कि मन वचन और काय से न तो स्वयं झूठ बोले, न बोलाव और न वोलते हुए को भला जाने" ।
"तीसरा महाव्रत यह है कि-मन वचन और काय से न तो स्वयं चोरी को, न करावे और न करते हुए को मला जाने"।
"चौथा महाव्रत यह है कि-मन वचन और काय से न तो स्वय मैथुन का सेवन करे, न मैथुन का सेवन करावे और न मैथुन का सेवन करते हुए को भला जाने"।
"तथा पाँचवॉ महावत यह है कि-मन वचन और काय से न तो स्वय धर्मोपकरण के सिवाय परिग्रह को रक्खे न उक्त परिग्रह को रखावे और न रखते हुए को भला जाने"।
"इन पाँच महाव्रतों के सिवाय रात्रिभोजनविरमण नामक छठा व्रत है अर्थात् मन १-"शील खभावे सद्वृत्ते" इत्यमर ॥
-विचार कर देखा जाये तो इस व्रत का समावेश ऊपर लिम्वे व्रतों में ही हो सकता है अर्थात् यह त उक्त व्रतों के अन्तर्गत ही है ।