________________
पञ्चम अध्याय ॥
६३९
दोनों भाई बहुत प्रसन्न हुए और बहुत सा द्रव्य लाकर आचार्य महाराज के सामने रख कर भेंट करने लगे, तब महाराज ने कहा कि - "यह हमारे काम का नहीं है, अतः हम इसे नहीं लेंगे, तुम दयामूल धर्म के उपदेश को सुनो तथा उस का ग्रहण करो कि जिस से तुम्हारा उभय लोक में कल्याण हो" महाराज के इस वचन को सुन कर दोनों भाइयों ने दयामूल जैनधर्म का ग्रहण किया तथा आचार्य महाराज थोडे दिनों के बाद वहाँ से अन्यत्र विहार कर गये, बस उसी धर्म के प्रभाव से दूगड़ और सूगड़ दोनों भाइयों का परिवार बहुत बढा ( क्यों न बढ़े- 'यतो धर्मस्ततो जयः' क्या यह वाक्य अन्यथा हो सकता है) तथा बड़े भाई दुगड की औलाद वाले लोग दूगड़ और छोटे भाई सुगड़ की औलादवाले लोग सुगड़ कहलाने लगे ||
❤
सत्रहवीं संख्या- मोहीवाल, आलावत, पालावत, दूधेड़िया गोत्र ॥ विक्रमसंवत् १२२१ ( एक हजार दो सौ इक्कीस ) में मोहीग्रामाधीश पॅवार राजपूत नारायण को नरमणि मण्डित भालस्थल खोडिया क्षेत्रपाल सेवित जैनाचार्य श्री जिनचन्द्रसूरिजी महाराज ने प्रतिबोध देकर उस का माहाजन वंश और मोहीवाल गोत्र स्थापित किया, नारायण के सोलह पुत्र थे अतः मोहीवाल गोत्र में से निम्नलिखित सोलह शाखायें हुई :
१ - मोहीवाल | २ - आलावत । ३ - पालावत । ४ - दूधेड़िया । ५ - गोय । ६ –थरावत । ७- खुडघा । ८-टौडरवाल । ९ - माधोटिया । १० - बभी । ११ – गिड़िया । १२ - गोड़वाढ्या । १३–पटवा । १४ - बीरीवत । १५ - गाग । १६-गौध ॥
अठारहवीं संख्या - बोथरा ( बोहित्थरा ), फोफलिया बच्छावतादि ९ खॉपें ॥
श्री जालोर महादुर्गाधिप देवडावशीय महाराजा श्री सामन्त सी जी थे तथा उन के दो रानियाँ थीं, जिन के सगर, वीरमदे और कान्हड़नामक तीन पुत्र और ऊमा नामक एक पुत्री थी, सामन्त सी जी के पाट पर स्थित होकर उन का दूसरा पुत्र वीरमदे जालो - राधिप हुआ तथा सगर नामक बड़ा पुत्र देलवाड़े में आकर वहॉ का खामी हुआ, इस का कारण यह था कि सगर की माता देलवाड़े के झाला जात राना भीमसिंह की पुत्री थी और वह किसी कारण से अपने पुत्र सगर को लेकर अपने पीहर में जाकर (पिता के यहाँ ) रही थी अतः सगर अपने नाना के घर में ही बड़ा हुआ था, जब सगर युवावस्था
१ - दोहा - गिरि अठार आबू धणी, गल जालोर दुरंग ॥ तिहाँ सामन्त सी देवडो, अमली माण
अभग ॥ १ ॥
२- यह पिङ्गल राजा को व्याही गई थी ॥